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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३१३

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शेरकोट मे पहुंचकर उमने अपनी चचल मनोवृत्ति को भरपूर दवाने की चेष्टा की, और कुछ अश तक वह सफल भी हुई, पर अव भी चौबे की राह देख रही थी। बहुत दिनो तक राजकुमारी के मन मे यह कुतूहल उत्पन्न हुआ था कि चौवे के मन में वह बात अभी बनी हुई है या भूल गई। उसे जान लेने पर वह सन्तुष्ट हो जायगी । बस, और कुछ नही । मधुबन । नही, आज वह सन्ध्या को घर लौटने के लिए कह गया है । तो फिर, रसोई बनाने की भी आवश्यकता नही । वह स्थिर होकर प्रतीक्षा करने लगी। किन्तु बहुत दिनो पर चौबेजी आवेगे, उनके लिए जलपान का कुछ प्रबन्ध होना चाहिए। राजकुमारी ने अपनी गृहस्थी के भडार-घर में जितनी हाडियाँ टटोलो, सब मूनी मिली। उसकी खीझ वढ गई। फिर इस खोखली गृहस्थी का नो उसे कभी अनुभव भी न हुआ था। आज मानो वह शेरकोट अपनी अन्तिम परीक्षा में असफल हुआ। राजकुमारी का क्रोध उबल पडा । अपनी अग्निमयी आँखा को घुमाकर वह जिधर ही ले जाती थी, अभाव का खोखला मुंह विकृत रूप से परिचय दकर जैसे उसकी हंसी उडान क लिए मौन हो जाता। वह पागल होकर बोली- यह भी कोई जीवन है। ___ क्या है भाभी ! मैं आ गया । कहत हुए चौवे ने घर में प्रवेश किया। राजकुमारी अपना घूघट खोचत हुए काठ की चौकी दिखाकर बोली-वैठिए । क्या कहूं, तहसीलदार के यहां ठहर जाना पड़ा । उन्हान विना कुछ खिलाए आने ही नहीं दिया। सा भाभी ! आज ता क्षमा करो, फिर किसी दिन आकर खा जाऊँगा । कुछ मेरे लिए बनाया तो नही ? राजकुमारी रुद्ध कठ स वाली नही तो, आये बिना मैं कैस क्या करती ! ता फिर कुछ तो. नहीं आज कुछ नही ! हाँ, और क्या समाचार है । कुछ मुनाभा ।यहकर चौब ने एक बार सतृष्ण नेत्रा म उस दरिद्र विधवा की ओर देखा। तितली २५