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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३९५

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नन्दरानी और इन्द्रदेव दोनो ही कुर्सी खीचकर बैठ गये । तीनो चुप थे। नन्दरानी ने कहा-आज आपको मेरा निमन्त्रण स्वीकार करना होगा। देखिये, विना कुछ पूर्व-परिचय के मेरा ऐसा करना चाहे आपको न अच्छा लगे, किन्तु मेरा इन्द्रदेव पर इतना अधिकार अवश्य है और में शीघ्रता मे भी हूँ। मुझे ही सब प्रबन्ध करना है । इसलिए मैं अभी तो छुट्टो मांग कर जा रही हूँ। वही पर बातें होगी। शैला को कहने का अवसर बिना दिये ही वह उठ खडी हुई। शैला ने इन्द्रदेव की ओर जिज्ञासा भरी दृष्टि से देखा। नन्दरानी ने हंसकर कहा-इन्हे भी वही ब्यालू करना होगा। शैला ने सिर झुकाकर कहा--जैसी आपकी आज्ञा । नन्दरानी चली गई । शैला अभी कुछ सोच रही थी कि मिसिर न आकर पूछा-व्यालू के लिए .. उसकी बात काटते हुए इन्द्रदेव ने कहा -हम लोग आज बडे बंगले में ब्यालू करेगे । वहाँ, धोमू से कह दो कि मेरे बगल वाले कमरे मे मेम साहब के लिए पलंग लगा दे। मिसिर के जाने पर शैला ने कहा-मैं तो कोठी पर चली जाऊँगी। यहां शाट बढाने से क्या काम है । मुझे तो यहाँ आये दो सप्ताह से अधिक हो गया । वहां ता मुझे कोई असुविधा नहीं है। इन्द्रदेव ने सिर झुका लिया। क्षोभ से उनका हृदय भर उठा। वह कुछ वडा उत्तर देना चाहते थे। परन्तु सम्हलकर कहा-हां शैला ! तुमको मेरी असुविधा का बहुत ध्यान रहता है । तुमने ठीक ही समझा है कि यहां ठहरने में दोनो को कष्ट होगा। किन्तु यह व्यग शैला के लिए अधिक हो गया। इन्द्रदेव को वह मना लेन आई थी। वह इसी शहर मे रहने पर भी आज कितने दिनो पर उनसे भेट करने आई, इस बात का क्या इन्द्रदेव वो दुख न होगा? आने पर भी वह यहां रहना नहीं चाहती । इन्द्रदेव ने अपने मन मे यही समझा होगा कि वह अपने सुध को देखती है। शैला ने हाथ जोडकर कहा-क्षमा करो इन्द्रदेव ! मैंने भूल की है। भूल क्या? मैं तो कुछ न समझ सका। मैंन अपराध किया है । मुझे सीधे यही आना चाहिए था। किन्तु क्या करूं, रानी साहिबा ने मुझे वही रोक लिया। उन्होंने वीवी-रानी के नाम अपनी जमीदारी लिप दी है । उसी के तिखान-पढ़ाने में लगी रही । और मैंने उसके लिए आकर तुम्हारी सम्मति नही ली, ऐसा मुझे न करना पाहिए या। तितली: ३७१