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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३९७

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मुकुन्दलाल कम्बल के एक सिरे पर बैठे हुए छोटी-सी सितारी पर ईमन का मधुर राग छेड रहे थे । दमचूल्हे पर मटर हो रही थी। उसके नीचे लाल-लाल अगारी का आलोक फैल रहा था । लालटेन आड मे कर दी गई थी, बाबू मुकुन्दलाल को उसका प्रकाश अच्छा नही लगता था। नन्दरानी उस क्षीण आलोक मे थाली सजा रही थी। सरूप निःशब्द काम करने में चतुर था। वह नन्दरानी के सकेत से सब आवश्यक वस्तु भण्डार में से लाकर जुटा रहा था। शैला और इन्द्रदेव को देखते ही मुकुन्दलाल ने सितारी रखकर उनका स्वागत किया । शैला ने नमस्कार किया। सब लोग कम्बल पर बैठे । नन्दरानी ने थाली लाकर रख दी । इन्द्रदेव ने शैला का परिचय देते हुए यह भी कहा किआप हिन्दू-धर्म में दीक्षित हो चुकी है। आपने धामपुर में गांव के किसानो की सेवा करना अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया है। नन्दरानी विस्मित होकर शैला के मौन गौरव को देख रही थी। किन्तु मुकुन्दलाल का ललाट, रेखा-रहित और उज्ज्वल बना रहा। जैसे उनके लिए यह कोई विशेष ध्यान देने की बात न थी। उन्होंने मटर का एक पूरा ग्रास गले से उतारते हुए कहा-भाई इन्द्रदेव, तुम जो कह रहे हो, उसे मुनकर मिस शैला की प्रशसा किये बिना नहीं रह सकता। यह भी एक तरह का सन्यास-धर्म है । किन्तु मैं तो गृहस्थ नारी की मगलमयी कृति का भक्त हूँ। वह इस साधारण सन्यास से भी दुष्कर और दम्भ-विहीन उपासना है । नन्दरानी ने कुछ सजग होकर अपने पति की वह बात सुनी। उसके अधर कुछ खिल उठे । उसने कहा-~इन्द्रदेव जी, और क्या हूँ? मुकुन्दलाल ने थोडा-सा हँसकर कहा-अपनी-सी एक सुन्दर सह-धर्मिणी । शैला के कर्णमूल लाल हो उठे। और इन्द्रदेव ने बात टालते हुए कहा-मैं समझता हूँ कि भाभी जानती होगी कि इस अपने पेट के लिए जुटाने वाले मनुष्य को, उनकी-सी स्त्री की आवश्यकता नहीं हो सकती। शैला और भी कटी जा रही थी । उसको इन्द्रदेव की सब बाते निराश हृदय को सतोप-भरी साँस-सी मालूम होती थी। वह देख रही थी नन्दरानी को और तुलना कर रही थी तितली से । एक की भरी-पूरी गृहस्थी थी और दूसरी अभाव से अकिंचन तिस पर भी दोनो परिवार सुखी और वास्तविक जीवन व्यतीत कर रहे थे। नन्दरानी ने कहा--इतना पेटू हो जाना भी अच्छा नही होता इन्द्रदेव ! अपना ही स्वार्थ न देखना चाहिए ! तितली: ३७३