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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४११

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गाडी के पिछले डब्बे प्लेटफार्म के बाहर लाइन में खडे थे। प्लेटफार्म के ढालुवे छोर पर खडे होकर गार्ड ने धोरे-धीरे हरी झडी दिखाई । उस जगह पहुँचकर भी मधुबन और रामदीन हताश हो गये थे। टिकट लेने का समय नहीं। गाडी चल चुकी है, उधर लौटने से पकडे जाने का भय । गार्ड वाला डब्बा गार्ड के समीप पहुँचा ! दूर खडे स्टेशन मास्टर से कुछ सकेत करते हुए अभ्यस्त गार्ड का पैर, डब्वे की पटरी पर तो जा पहुंचा; पर वह चूक गया! दूसरा पैर फिसल गया। दूसरे ही क्षण कोई भयानक घटना हो जाती, परन्तु मधुवन ने बडी तत्परता से गार्ड को खीच लिया। गाडी खडी हुई। स्टेशन पर आकर गार्ड ने मधुवन को दस रुपये का एक नोट देना चाहा। उसने कहा नहीं, हम लोग देहाती है, कलकत्ता जाना चाहते है। गार्ड ने प्रसनता से उन दोना को अपने डब्बे मे बिठा लिया। गाडी कलकत्ता के लिए चल पड़ी। उसी समय वनजरिया में उदासी से भरा हुआ दिन ढल रहा था। सिरिस के वृक्ष के नीचे, अपनो दोनो हथेलियो पर मुंह रखे हुए, राजकुमारी, चुपचाप आँसू की बूंदे गिरा रही थी। उसी के सामने, बटाई के खेत मे से आये हुए, जो-गेहूँ के वाझ पड़े थे । गऊ उसे सुख से खा रही थी। परन्तु राजकुमारी उसे हॉकती न थी। ___मलिया भी पीठ पर रस्सी और हाथ म गगरी लिये पानी भरने के लिए दूसरी ओर चली जा रही थी। राजकुमारी मन-ही-मन सोच रही थी-मैं ही इन सब उपदवो की जड है। न जान किस बुरी घडी म, मेरे सोधे-सादे हृदय मे, ससार की अप्राप्त मुखलालसा जाग उठी थी, जिससे मेरे सुशील मधुबन के ऊपर यह विपत्ति आई। तितली भी चली गई । उसका भी कुछ पता नही। सुना है कि कल तक लगान का रुपया न जमा हो जायगा, तो वनजरिया भी हम लोगो को छोडना पडेगा। है भगवान ! वैशाख की सन्ध्या आई । नारगी के हल्के रंग वाले पश्चिम के आकाश के नोचे, सन्ध्या का प्राकृतिक चित्र मधुर पवन से सजीव हो हिल रहा था। पवन अस्पष्ट गति से चल रहा था। उसमे अभी कुछ-कुछ शोतलवा थो! मूर्य की अन्तिम किरणे भी डूब चुकी थी, किन्तु राजकुमारी की भावनाओ का अन्त नहीं ! तितली: ३७