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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४४३

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जेल का जीवन विताते मधुवन को कितने वरस हो गये हैं। वह अव भावना शून्य होकर उस ऊँची दीवार की लाल-लाल ईंटो को देख कर उसकी ओर म आँखें फिरा लेता है। बाहर भी कुछ है या नही, इसका उसके मन म कभी विचार नहीं होता। हाँ, एक कुत्सित चित्र उसके दृश्य-पट मे कभी-कभी स्वय उपस्थित होकर उसकी समाधि म विक्षेप डाल देता था। वह मलिन चिन या मैना का ! उसका स्मरण होते ही मधुवन की मुट्टियां बंध जातीं। वह कृतघ्न हृदय । कितना स्वार्थी है । उसको यदि एक बार कुछ शिक्षा दे सकता । जंगले म से बैठे-बैठे, सामने की मौलसिरी के पेड पर बैठे हुए पक्षियो को चारा बाट कर खाते हए वह देख रहा था । उसक मन म आज वडी करुणा थी। वह वपन अपराध पर आज स्वय विचार कर रहा था~यदि मेरे मन में मैना के प्रति थोडा-सा भी स्निग्ध भाव न होता, तो क्या घटना को धारा ऐसी ही चल सकती थी ! यही तो मेरा एक अपराध है । तो क्या इतना-सा विचलन भो मानवता का ढाग करने वाला निर्मम ससार या क्रूर नियति नही सहन कर सकती ? वह उपेक्षा करने के योग्य साधारण-सी बात नही थी क्या ? मेरे सामने से उच्च आदर्श थे । कैसे उत्साहपूर्वक भविष्य का उज्ज्वल चित्र में खीचता पा। वह मब सपना हो गया, रह गई यह भीपण वगारी। परिश्रम से तो मैं कभी डरता न था। तब क्या रामदीन के नाटा का झिटक लना मेरे लिए घातक सिद्ध हुआ? हाँ, वह भी कुछ है तो, मैंने क्या नही उसे फेंक देने क लिए कहा। और कहता भी कैस । मैंने तो स्वय महन्त को थैली ले ली थी। हे भगवान् । मेरे बहुत-से अपराध हैं । मैं तो केवल एक की ही गिनती कर सकता था । सव जैस साकार रूप धारण करके मेरे सामन उपस्थित हैं। हां, मुझे प्रमाद हो गया था । मैंने अपन मन को निर्विकार समझ लिया था। यह सब उसी का दण्ड है। उसकी आंखा से पश्चात्ताप के आंसू बहने लगे। वह घण्टा अपनी कालकाठरी म चुपचाप जंगले से टिका हा आमू बहाता रहा। उसे कुछ झपकी-सी लग गई। स्वप्न मे तितलो का शान्तिपूर्ण मुखमडल दिखाई पड़ा। वह दिव्य तितली: ४१