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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४५८

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हाँ वेटा, शेरकोट तेरे पिताजी के आते ही तेरा हो जायगा। कल मैं शेला के पास जाऊंगी । तू अब सो रह । तितली को जीवन भर म इतना मनोबल कभी एकत्र नहीं करना पड़ा था। मोहन का ज्वर कम हो चला था। उसे झपकी आने लगी थी। उसी कोठरी स सटकर एक मलिन मूर्ति बाहर खडा थी। मुकुमार लता उस द्वार के ऊपर बन्दनवार-सी झुकी थी। उसी की छाया म वह व्यक्ति चुपचाप मानो कोई गम्मीर सन्देश सुन रहा था। तितली की आखो म एक क्षणिक स्वप्न आया और चला गया। उसकी आँखे फिर शून्य होकर खुल पड़ी। वह बचन हा गयी। उसने मोहन का सिर सहलाया। वह निमल हल्के-से ज्वर म सो रहा था। तब भी कभी-कभी चौंक उठता था। धीरे-धीरे उसके ओठ हिल जाते थे । तितली जैसे सुनती थी कि वह बालक 'पिताजी कह रहा है । वह अस्थिर होकर उठ बैठी। उसकी वेदना अब वाणी बनकर धीरे-धीरे प्रकट होने लगी नही । अब मेरे लिए यह असम्भव है। इसे मैं कैसे अपनी बात समझा सकूँगी । हे नाथ | यह सन्देह का विष, इसके हृदय मे किस अभागे ने उतार दिया । ओह । भीतर-हो-भीतर यह छटपटा रहा है । इसको कौन समझा सकता है। इसके हृदय म शेरकाट, अपने पुरखो की जन्मभूमि के लिए उत्कट लालसा जगी है। ओह, सम्भव है, यह मेरे जीवन का पुण्य मुझे ही पापिनी और कलकिनी समझता हो तो क्या आश्चय । मने इतन धैय से इसीलिए ससार का सब अत्याचार सहा कि एक दिन वह आवगे, और मै उनको थानी उन्हे सौपकर अपने दुखपूर्ण जीवन से विधाम लूंगी। किन्तु अब नही । छाती मे झंझरिया बन गयी है । इस पीडा का कोई समझने वाला नहीं । कभी एक मधुर आश्वासन । नही, नही, वह नही मिला, और न मिल । किन्तु अब मैं इसका नही सम्भाल सकती। जिसने इसे ससार मे उत्पन किया हा वही इसका सम्भाले । तो अभी नारी-जीवन का मूल्य मैने इस निष्ठुर ससार को नहीं चुकाया क्या ? ठहर जाऊँ ? कुछ दिन और भी प्रतीक्षा करूँ, कुछ दिन और भी हत्यारे मानव-समाज की निन्दा और उत्पीडन सहन करूं। क्या एक दिन, एक घडी, एक क्षण भी मेरा, मरे मन का नही आवेगा-जब में अपने जीवन-मरण के दुख-सुख म माथ रहन की प्रतिज्ञा करने वाल के मुंह से अपनी सफाई सुन लू ? नही, वह नही आन का । तो भी मनुष्य के भाग्य म वह अपना समय कब आता है, यह नहीं कहा जा सकता । रो लूँ ? नही, अब राने का समय नही है। वेचारा सो रहा है। तो चलूं । गगा को गोद मे ! ४३४ प्रसाद वाङ्मय