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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४६२

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डार अटका दिय गये । कुछ परिनारक भा दौड़त हुए नाय । वनर वही ठहर गय । कवल एक उत्ताधारी महाकाल के गापुर को आर यहन लगा। पाछे-पीछ ये लाग चल । रथी पा डील-डौल साधारण था, विन्नु उसका प्रभाव असाधारण । उसके समीप स लाग हट जात । कुतूहल और क्या पहला परदसा इन्ही लागा के साथ, पाछे-पाछ मन्दिर म धुसा । सब लाग व्यस्त थ । पूजन आरम्भ हा नुका था। नागरिता का झुड भो चला था रहा था। किन्तु न जान क्यो उस रथी पर दृष्टि जात ही जैसे मव सशर हा जात । पथ छोड दत । मन्दिर के विशाल प्रागण म नर-नारी का भार उमड रही था । महाकाल का प्रदाप-पूजन भारत-विख्यात था। उसम भक्ति और भाव दाना का समावेश था । सात्विक पूजा क साथ नृत्य गीत-कला का समावेश था। इसीलिए बोदशासन में भी उज्जयिना की वह शोभा मजीप थी। महाकाल ये विशाल मन्दिर म सायकालीन पूजन हो चुका था। दर्शर अभा भी भक्ति-भाव स यथास्थान बैठ रहे थे। मण्डप क विशाल स्तम्भा स वे व गजरे झूल रहे थे । स्वण के ऊंचे दोपाधारो म मुगन्धित वैला क दाप जल रह थे। कस्तूरी अगरु स मिली हुई धूप-गन्ध, मन्दिर म पल रही थी। गर्भगृह के समीप एक मुक्तकश ब्रह्मचारी एक सौ एक बत्तियो की जलती हुइ आरती को अपना बडी-बडी रतनारी आँखा स देख रहा था। पुष्प-शृगार स भूपित महाकाल-मूर्ति की विशाल दहली पर बीचोबीच यह आरती जल रही थी, जिस अपनो दृढ भुजा स ब्रह्मचारी ने घुमा कर रख दा है । पटह, तूय शान्त नीरव थे। मण्डप का चौफोर भाग बीच म खाली था। दर्शन चुप थे । सहसा मृदग और वाणा बज उठी। न जान किधर से नूपुर का झनकारती हुई एक देवदासी उसी रिक्त भूमिका म लास्य-मुद्रा म आ खडी हुई, भावाभिनय सगीत और नृत्य साथ-साय चला। उमा-तपस्वी हर के समीप पुष्प-पात्र लकर जाती है । वसन्त का प्रादुर्भाव हाता है । उमा के जग-अग मे श्री, यौवन और कमनीयता तरग-सी उठने लगती है । कोयल की पचम तान, वीणा की मधुर झनकार के साथ वह अप्सरा महाकाल के समीप पुष्पाजलि बिखर देती है। निशीथ-व्यापी सगीत-समारोह का यह मगलाचरण था। आज मन्दिर म विशेष उत्सव को आयोजना थी। दर्शको मे एक और रथारोही व्यक्ति बैठा था । उसके साथी भी विशेष सावधान थे। किन्तु उसकी दृष्टि देवदासी पर थी। एक बार भी देव-प्रतिमा की ओर उसन भूल से भी नही देखा । उद्विग्न होकर उसने अपन साथी से धोरे से कहा १४० प्रसाद वाड्मय