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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४६८

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___ करती है। मैं उसकी अभ्यर्थना म नाचूंगी।" इरा का क्लापूर्ण हृदय उल्लसित हा रहा था । उसन नीली सघाटी का छार फलाया। वह अभी शिणमाणा ही थी। भिक्षुणो नही हुई थी । उपसम्पदा नही मिली थी। उसने नीला को अपना दर्शक बनाया और नक्षत्र विजडित क्षुद्र आकाश-खण्ड की तरह अपन का भूली हुई-सी नाचने लगी। भिक्षुणियां के दल म से एक कोलाहल का स्वर उठा और फिर शान्त हा गया। अद्भुत । उन विहार की प्राचीर म बन्द भिक्षुणिया वो यह दृश्य, जीवन का यह उल्लसित रूप देखन वा कहाँ मिला था। वे भी मूक होकर चकितसी देखने लगी। भिक्षुणी-संघ की प्रतिनिधि उत्पला जो प्रवारणा के लिए चुनी गई थी, उपोसथागार के द्वार की आर मुंह किये मूत्र पाठ कर रही थी। वह प्रतीक्षा में थी कि भिक्षु-सघ की प्रवारणा हो जाने पर यह भी उपोसथागार में जाकर भिक्षुणी-सघ की ओर से प्रवारणा करे। भिक्षु-सघ को प्रवारणा समाप्त हुई। प्रतिनिधि उपला उपोसथागार म जाकर खडी हुई। वह कहने लगा-"आर्यो । भिक्षुणी-सघ देखे, मुने और शका किये हुए सभी दापो के लिए भिक्षु-संघ के पास प्रवारणा करता है।" इतन म एक भिक्षुणी दोडतो हुई उपासथागार म पहुंची। "ऐसा कभी देखा नहीं गया ऐसा कभी सुना नही गया'-उसन जैसे घबडा कर पहा । प्रवारणा रुक-सो गई। "क्या है भगिनी? --स्थविर ने पूछा । "अद्भुत नृत्य । "नृत्य । और विहार म ।। "यही चक्रम पर, भन्त ।' आश्चर्य और क्राध से भरे हुए भिक्षुआ का दल बाहर आया । उन लोगो ने देखा सचमुच इरा नाच रही है । सौन्दय का उन्मुक्त उल्लास । उनका क्रोध, उनकी फटकार क्षण भर के लिए स्थगित हा रही। जैसे वे भी इस अद्भुत उन्माद को हृदयगम कर लेना चाहते थे। अकेली इरावती आँख मूद कर नाच रही थी। चक्रम क नीचे शिला, पर आकाश में चन्द्र, शिप्रा के कुजा मे स्निग्ध पवन सब स्तब्ध थे । स्थविर ने चिल्ला कर कहा--"चन्द करो।" इरा विराम पर जा चुकी थी, उसने आँखे खोल दी। और देखा कितनो औषो की रोप-भरी दृष्टि उस पर पड़ रही थी। आज वह दूसरी बार मृत्य करने से रोकी गई थी। उसने अपन आहत अभिमान को बटोरते हुए कहा"क्या ?" ४४६ प्रसारमामय