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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४७८

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रहा है। इनक गुप्तचरा स भी मिलता रहा हूँ। किन्तु पार्श्वनाथ गिरि पर धर्म क नाम स जा अधिकार खारवेल ने कर लिया है, वह आगे चल कर क्या रग नायगा नही कहा जा सकता। अभी तो वह मित्रता का ही रूप दिखला रहा है, किन्तु स्वाथ म बाधा पडत ही युद्ध की घोषणा अनिवाय है । इसलिए खारवेल का 'अच्छा ता तुमन प्रवास के कई बरसा म यह काम अच्छा ही किया । यद्यपि हम लागा वा विश्वास था कि तुम केवल उस अज्ञातकुलशीला प्रतिवेशिनी की भुन्दरी वालिका के पीछे ही भटक रह हो।' "तात | क्षमा कीजिये । वही तो यह इरावती है जिस सम्राट ने भिक्षुणों बनने के लिए कुक्कुटाराम म भेज दिया है।' ___ मूर्ख वालक 1 क्या अभी भी वह तुम्हार दृष्टिपथ स अलग नही है ? जाआ, कर्तव्य तुम्हार सामन है। -कहकर पुष्यमित्र न मुंह फेर लिया। और अग्निमित्र धीरे-धीरे तारण की ओर अग्रसर हुआ। तब भी उसके मन मे एक बार इरावती को देख लेन की इच्छा थी । इश युद्ध स कदाचित् उसे न लौटना हो । अग्निमिन मातृ-विहीन युवक था। पिता सैनिक, राज-अनुग्रह का अभिलापी । इरावती की आशा उसने अभी भी छाडी न थी, किन्तु भिक्षुणी-विहार की प्राचीरो में स इरावती का उद्धार करना कठिन था। इसी उधेड-चुन म कब वह गगा-तट के प्राचीन शिवमन्दिर के समीप आ पहुंचा, उसे ज्ञान नही। उसने निश्चय किया कि यहा एकान्त है, मैं कुछ काल तक यही बैठ कर अपने मन का परख लूं । जागे क्या करना होगा, इस पर भी विचार कर लूं। ____दोपहर का सूर्य अपनी प्रखर किरणमाला स गगा का जल उद्दीप्त करता था। उस पर आख नहीं ठहरती थी, जो मन्दिर क सभा-मण्डप में खम्भे क सहार वह टिका हुआ विचार-निमग्न था। कुछ-कुछ तन्द्रा-सी आ चली थी । भोजन न करन को शिथिलता भी शरीर का अवसन कर रही था । सहसा कुछ शब्द सुनाई पडा । वह जैसे सचेत होकर सुनने लगा। शब्द समीप के ही एक जीर्ण गृह स आ रहा था, जा सम्भवत मन्दिर के पुजारा के लिए किसी काल में बना था। "तो तुम मर भी जाओग पर बताओग नहीं। हे भगवान् । फिर मैं क्या करूंगी' किसी स्त्री का राप और धमकी स भरा सानुनासिक शब्द सुनाई पड़ा। "उस जान कर तुम क्या करोगा। वह मरा कुलपरम्परागत गुप्त रहस्य है । ताम्रपत्र. नन्दराज का नहीं वह स्त्री को कभी भी नही बताया जा सकता। ४५८ प्रसाद वाइमय