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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/४९७

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"आनन्द । आनन्द । आनन्द ।' फिर तीन शृगनाद | सब लोग चौक उठे। नगर मे हलचल तो थी ही । वृद्ध सेनापति के कान्यकुब्ज मे वीरगति प्राप्त होने के समाचार ने कुसुमपुर म भयानक त्रास उत्पन्न कर दिया था। सब लोग सशक होकर कुसुमपुर के अवरोध की प्रतीक्षा कर रहे थे। फिर यह तीव्र शृगनाद । और यह युवा बलिष्ठ ब्रह्मचारी सिर पर रुद्राक्ष की माला कठ मे यज्ञोपवीत, खुले हुए अस्त-व्यस्त केश, काषाय का अंचला डाले हुए अद्भुत जगाने वाले की तरह कहाँ से आ गया। कुक्कुटराम के भिक्षुणी-विहार के द्वार पर उसका शृगनाद वेग से हुआ था। कपाट खुला । इरावती निकल आई। जिस दिन से उन छोकडियो ने उसे छकाया, उसी दिन से वह अपन ऊपर विचार कर रही थी । वह सुनने लगी "दुख का अधकार, नटराज के अग्नि-ताण्डव से जल रहा है । देखो, सृष्टि, स्थिति, सहार, तिरोभाव और अनुग्रह की नित्य लीला से समस्त आकाश भर उठा है । आत्मशक्ति के विस्मृत विद्य तुकण । अपने स्वरूप मे चमक उठे । उठो, मगलमय जागरण के लिए विषाद-निद्रा से उठो । ब्रह्मचारी ने फिर शुगनाद किया । वह आगे बढने ही वाला था कि इरावती ने कहा-"क्या कहा आपने । यह आशामय सदेश। नही यह मिथ्या है, प्रलोभन अनात्म के वातावरण मे पला हुआ यह क्षणिक विज्ञान, उस शाश्वत सत्ता मे सन्देह करता है। मां ! तुम सर्वशक्तिमती हो । आनन्द के उल्लास की माता ही जीवन है, यह भूल क्यो गई हो ? –ब्रह्मचारी ने हंस कर कहा । ___"परन्तु मुझे तो अपने कर्मों पर पश्चाताप की ज्वाला मे जलने की आज्ञा मिली है । और इस यातना का कभी अन्त होगा कि नही, नही कह सकती।" कौन-से ऐसे कर्म हैं देवि, जिन्हें हम आनन्द की भावना मे भस्म नही कर सकते । तुमसे कौन-सा अपराध हुआ है ? 'मैं नही जानती। लोग कहते हैं-मैं नाचती थी, आनन्द मनाती थी। यही मेरा अपराध हो सकता है। नाम शक्ति-स्वरूपा हो, अन्तनिहित आनन्द की अग्नि प्रज्वलित करो! इरावती ४७६