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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५१४

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मगध-नरेश की विशाल रगशाला से सटा हुआ एक लता-गृह है, जिसमे क्रीडा-शैल से एक छोटा-सा झरना दिन-रात बहता रहता है। उसके दोना किनारो पर छोटी-छोटी श्वेत प्रस्तर की शिलाएं पडी है । इरावती उन्ही में से एक पर बैठी हुई जल के कोमल प्रवाह को देख रही है। मध्याह्न का सूर्य प्रयत्न करके भी उस सघन पत्रावलो म किरणो का प्रवेश नहीं करा सका है। हरित अधकार से वह स्थान पूर्ण है । इरावती पर उसकी छाया अद्भुत रग-चढा रही है। वह ध्यान-भग्ना दोनो हाथो मे अपने घुटनो को बाधे चुपचाप बैठी है । सहसा वहाँ की छाया गम्भीर हो गई। दूर पर कुज का द्वार जैसे अवरुद्ध हो गया, वह चौककर उधर देखने लगी। बृहस्पत्तिमित्र मुस्कराते हुए भीतर आए । इरावती उठी नही और न उसने अभिवादन ही किया। उसकी दृष्टि ने पूछा--"तुम क्यो यहाँ आये ?" "इरावती । "बोलना भी नहीं चाहती हो ? इतना रोप क्यो ।' "मैंने तुम्हे भिक्षुणी-विहार मे भेजकर भूल की थी । तुम इसी कानन मे रहने योग्य मयूरी हा। बृहस्पति आ रहे थे । "तो न वोलेगी । इतना वडा अपराध मैंने किया है।'कहते हुए सम्राट उसके समीप आकर बैठ गये। इरावती उठकर खड़ी हो गई। उसने कहा-"आप कौन हैं । ' मुझे नही जानती हा, यह अच्छी बात है। समझ लो, मैं कोई हूँ। पर हूँ अवश्य तुम्हारा प्रेम-भिखारी ।' "प्रेम के लिए हृदय सूख गया है । मैंने इधर बरसा तुम्हारे विहार मे सयम और शील की शिक्षा पाई है । मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता मैिं जन्म की दरिद्र अकिंचना | मेरे लिए यह सव विभव विलास कवल कुतूहल उत्पन कर सकते हैं, ४६६ प्रसाद वाङ्मय