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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५१८

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"हाँ, सच मुझे एक सघी को आवश्यकता है, जिससे मैं अपना हृदय पालकर सब कुछ कह सकू। जो मुझसे सहानुभूति रखती हो । इस जनाको अवरोध मे, मैं अकेला जैसे अपने को सबसे टिपाता फिरता हूँ। तुम अपना विश्वास मुझे दे सकोगी ?" सम्राट् ने सरलता से कहा । कालिन्दो अपना रोना-हंसना बन्द कर चुकी थी। वाह्य अभिनय समाप्त हो चुका था । यह पैसे प्रतिस्थ हो रही थी। 'विश्वास' कालिन्दी दे सकेगी ! जिसके लिए वह वरावर पड्यन्य कर रही है, वही उसके विश्वास का भिखारी है । उसने कहा "क्षमा हो सम्राट् । में कालिन्दी, नन्दराजवश की नन्दिनी, मुन्त पर विश्वास 1 नहीं, आप मत कीजिए।" "अरे । तो तुम वही हो, राजगृह में ..हाँ, मुझे सब स्मरण हो रहा है, किन्तु क्यो ? विश्वास करने से हानि क्या है । तुम क्तिनी मुन्दर हा कालिन्दी! इस रूप के भीतर अविश्वासी हृदय | असम्भव | तुमको मरी सबी, सहाय करने वाली, विश्वासपात्रो, और सब कुछ बनना पडेगा । चाहे और कुछ भी हो, मैंन तो तुम्हारा कोई अपकार नही किया है । फिर क्यो सन्देह करू ?" “मैं अपनी बात कह चुकी । अव जैसी आज्ञा हो।" वालिन्दी ने कहा । "तो चलूं, तुम्हारे निभृत मन्दिर में, मैं विश्राम चाहता हूँ!" "नही महाराज ! मैं यही आपसे कल मिलूंगी। मैं रानिया के द्वेप का लक्ष्य वनकर आपका कुछ भी मनोरजन न कर सकूँगी । इरावती को में. ." कारिन्दी ने ठोकर लगाई । इरावती को वृहस्पतिमित्र भूल गये थे उन्होने कहा-"ता मेरी वह दुर्वलता तुम क्षमा नही कर सकोगो ? सखी ।" "नही महाराज ! आप धर्म की विजय करने की घोषणा कर चुके हैं।" "वह मेरा ढोग है । राजनीतिक दांव-पेंच है । मैं जब तुमसे कोई बात नहीं छिपाऊंगा । वह नर्तकी मेरे..." "बस सम्राट् !" मैं समझ गई। ता उसे आपके याग्य बनने का अवसर मिलना चाहिए । वह काम सुखो को भूल गई है । और एक बात कहूँ।" कालिन्दी हँस रही थी। उसकी मुस्कराहट मे सम्राट् तर हो रहे थे। उन्होने उत्सुकता से पूछा-"क्या ?" ___"आप इन खिलवाडो मे लगे हैं। यवन-आक्रमण से साम्राज्य-ध्वस होना चाहता है ।" __ "मैंने मेघवाहन को भी तो बुला लिया है।" सम्राट् ने अपनी सरलता दिखाते हुए कहा। ५००: प्रसाद वाङ्मय