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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/५२३

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"ता चला हम लोग अहेर करन चले । क्या एक दिन मास विना काम न चलेगा। फिर कोई प्रबन्ध हो जायगा।" "मैं कहता हूँ, तुम तनिक महारानी के पास चली न जाआ | घर की रक्षा का प्रवन्ध हो जायगा और यह छोटी-मोटी अडचने भी दूर हो जायेंगी।" "राजगणिका के पास तो तुम जा सकते हो, महारानी के पास मैं जाऊं। नही।" "अरे वह मूर्ख चन्दन । तुम भी उसकी वाता को सच समझन लगी हो ? मणिमाला ! हृदयेश्वरी " धनदत्त का प्रेम उद्वेलित हो चला था। और मणिमाला का विभ्रम विलक्षण रूप से चमकने लगा। दोनो मे समझौता हो गया। मणिमाला स्वतन विचार की थी। उसे बन्धन नही चाहिए । जो कुछ हा गया, हो गया, उसके लिए इतनी तना-तनी क्यो ? चरित्रो से मनुष्य नहीं बनते । मनुष्य चरित्रो का निर्माग करते है । यही उसकी धारणा थी। इतने मे दीर्घकाय ब्रह्मचारी 'आनन्द' की रट लगाता उस उद्यान मे आता दिखाई पडा । धनदत्त तन गया था, उसन कहा "क्या है ब्रह्मचारिन ।" "भिक्षा चाहिए।" "भिक्षा तो राजा की आज्ञा स निपिद्ध है। इस समय भोजन करने के उपयुक्त पात्र केवल सैनिक हैं।" "मैं राजा की भिक्षा नहीं लेता । गुरुदेव की आज्ञा है, केवल वैश्य की भिक्षा तूंगा।" ____ "ऐसी कृपा वैश्या पर ही क्या है ?" "वैश्यो का अन पवित्र है। उनकी जीविका उत्तम है । क्योकि व दूसरे से दान ग्रहण करने को दीनता नही दिखाते और त्रास से दूसरो का धन भी नही छीन लेते । इसलिए मैं तो वैसा ही पवित्र धान्य लूंगा।" ब्रह्मचारी ने प्रसन मुख से कहा। "किन्तु आज्ञा जो नहीं है। हम लोग क्या करे। यह आपत्ति तो देखिए।" "तब जैसी तुम्हारी इच्छा। चलता हूँ।"—कह कर ब्रह्मचारी लौटा हो था कि मणिमाला न कहा-"आइए, मैं आपको दूंगी।" उसके हृदय म आत्मविश्वास की मात्रा बढ़ चुकी थी। धनदत ने भी दब कर उन्ही दोनो का अनुसरण किया। उसने चलते-चलत ब्रह्मचारी से पूछा-"आपके गुरुदेव कहां रहते हैं ?" पाक किनारे विशाल वट के नीचे । कभी दवा है वह स्थान !" इराषती : ५०५