होता था और गुलाब-जल की वृष्टि होती थी। ये सब बाते
अपनी-अपनी हैसियत के मुताविक सभी के यहाँ होती थी।
त्योहार पर तो सभी ऐसा करते थे।
एक दिन कोई त्योहार मनाया जा रहा था। वृद्ध, युवा,
वालक, स्त्रियाँ सभी आमोद-प्रमोद में मग्न थे। इतने में
अकस्मात् विसूवियस से धुआँ निकलता दिखाई दिया। शनैः-
शनैः धुएं का गुबार बढ़ता गया। यहाँ तक कि तीन घण्टे
दिन रहे ही चारों ओर अन्धकार छा गया। सावन-भादों की
काली रात सी हो गई। हाथ को हाथ न सूझ पड़ने लगा।
लोग हाहाकार मचाने और त्राहि-त्राहि करने लगे। जान
पंडा कि प्रलय आ गया। जहाँ पहले धुआँ निकलना शुरू
हुआ था वहाँ से अब ज्वाला निकलने लगी। लोग भागने
लगे। परन्तु भागकर जाते भी तो कहाँ ? ऐसे समय में
भाग निकलना नितान्त असम्भव था। अँधेरा ऐसा घनघोर
था कि बहन भाई से, स्त्री पति से, मॉ बच्चो से बिछुड़ गई।
हवा बड़े वेग से चलने लगी। भूकम्प हुआ। मकान धड़ा-
धड़ गिरने लगे। समुद्र से चालीस-चालीस गज़ ऊंची लहरे
आने लगीं। हवा भी गर्म मालूम होने लगी और धुआँ इतना
भर गया कि लोगो का दम घुटने लगा। इस महाघोर सङ्कट
से बचाने के लिए लोग ईश्वर से प्रार्थना करने लगे। पर सब
व्यर्थ हुआ। कुछ देर में पत्थरो की वर्षा होने लगी, और,
जैसे भादों में गङ्गाजी उमड़ चलती हैं वैसे ही गर्म पानी की
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