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तृतीय सर्ग

द्रुतविलम्बित छन्द

समय था सुनसान निशीथ का ।
अटल भूतल मे तम - राज्य था ।
प्रलय - काल समान प्रसुप्त हो ।
प्रकृति निश्चल, नीरव, शान्त थी ।।१।।

परम - धीर समीर - प्रवाह था ।
वह मनो कुछ निद्रित था हुआ ।
गति हुई अथवा अति - धीर थी ।
प्रकृति को सुप्रसुप्त विलोक के ॥२॥

सकल - पादप नीरव थे खडे ।
हिल नहीं सकता यक पत्र था ।
च्युत हुए पर भी वह मौन ही ।
पतित था अवनी पर हो रहा ॥३॥

विविध - शब्द-मयी वन की धरा ।
अति - प्रशान्त हुई इस काल थी ।
ककुभ औ नभ - मण्डल में नहीं ।
रह गया रव का लवलेश था ॥४॥

सकल - तारक भी चुपचाप ही ।
वितरते अवनी पर ज्योति थे ।
विकटता जिस से तम - तोम की ।
कियत थी अपसारित हो रही ॥५॥