प्रिया-प्रकाश (४) भरणगुप्त चक्र। (जिसमें एक चरण लुप्त सा हो जाय) सं कि र ली त त दी (नोट)-इस चक्र से पता चलता है कि इस दोहे की रचना में दोहे के प्रत्येक दल में सोलह सोलह अक्षर होने चाहिये, और दोनों दलों में सम अक्षर अर्थात् इसरा, चौथा, छठां, पाठवां, दसवां, बारहवा, चौदहवां और सोलहवां अक्षर एकही होने चाहिये। इस कायदे को समझ कर कोई भी कवि नवीन रचना कर सकता है। ( गतागत चतुर्पदी) मूल-राकाराज जराकारा, मास मास समा समा। राधा मीत तमी धारा, साल सीसु सुसील सा ।। ७२ ।। शब्दार्थ ---राकाराज - पूर्णमासी का चंद्रमा । जराकारा- (जर+श्राकार) ज्वर के समान । समा= वर्ष । तमी- राशि। धारा=(तलवार की) धार | साल= शालती है। सीसु-सिर पर । सुसील = शीलवती । सा वह । भावार्थ-(कृष्ण का बचन ) हमारी मीत जो राधा है ( उसको हमारे वियोग में) पूर्णिमा का चंद्रमा मास मास और वर्ष वर्ष ज्वरवत् गर्मी देता है। रात्रि उसके सिर पर सलवार को