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पृष्ठ:प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां.djvu/१४५

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हमारी पुरानी पुस्तकें अब दीमकों के सिवा हमारे किसी काम की न थीं। हमसे जितना चाटते बना चाटा, उनका सत्त निकाल लिया, अब चूहे चाटें या दीमक, हमें परवाह न थी। आज हम दोनों ने उन्हें कूड़खाने से निकाला और झाड़-पोंछकर एक बड़ा-सा गट्ठर बाँधा। मै मास्टर था, किसी बुकसेलर की दूकान पर किताब बेचते हुए झेंपता था। मुझे सभी पहचानते थे। इसलिए यह खिदमत विक्रम के सुपुर्द हुई और वह आध घंटे में दस रुपये का एक नोट लिये उछलता-कूदता आ पहुँचा। मैंने उसे इतना प्रसन्न कभी न देखा था। किताबें चालीस रुपये से कम की न थीं, पर यह दस रुपये उस वक्त हमें जैसे पड़े हुए मिले। अब टिकट में आधा साझा होगा। दस लाख की रकम मिलेगी। पांँच लाख मेरे हिस्से में आयेंगे, पाँच विक्रम के। हम अपने इसी में मगन थे।

मैंने संतोष का भाव दिखाकर कहा-पाँच लाख कुछ कम नहीं होते जी।

विक्रम इतना संतषी न था। बोला-पांच लाख क्या, हमारे लिए तो इस वक्त पाँच सौ भी बहुत हैं भाई, मगर जिन्दगी का प्रोग्राम तो बदलना पड़ गया। मेरी यात्रावाली स्कीम तो टल नहीं सकती। हाँ, पुस्तकालय गायब हो गया।

मैंने आपत्ति की - आखिर यात्रा में तुम दो लाख से ज्यादा तो न खर्च करोगे?

'जी नहीं, उसका बजट है साढ़े तीन लाख का। सात वर्ष का प्रोग्राम है। पचास हजार रुपये साल ही तो हुए

'चार हजार महीना कहो। मैं समझता हूँ, दो हजार में तुम बड़े आराम से रह सकते हो।

विक्रम ने गर्म होकर कहा-मैं शान से रहना चाहता हूँ। भिखारियों की तरह नहीं।

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