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पृष्ठ:प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां.djvu/९६

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प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ


का भेदी है। भगतजी अपने प्रतिद्वंदी की बड़ाई और अपनी लोक-निन्दा पर दाँत पीसकर रह जाते थे। जीवन में यह पहला ही अवसर था कि उन्हें अपने शत्रु के सामने नीचा देखना पड़ा--चिरकाल से जिस कुल-मर्यादा की रक्षा करते आये थे और जिस पर अपना सर्वस्व अर्पण कर चुके थे वह धूल में मिल गयी। यह दाहमय चिन्ता उन्हें एक क्षण के लिए चैन न लेने देती। नित्य यही समस्या सामने रहती कि अपना खोया हुआ सम्मान क्योंकर पाऊँ, अपने प्रतिपक्षो को क्योकर पददलित करूँ? उसका गरूर क्योंकर तोड़ूँ?

अन्त में उन्होंने सिह को उसकी माँद में ही पछाड़ने का निश्चय किया। सन्ध्या का समय था। चौधरी के द्वार पर एक बड़ी सभा हो रही थी। आसपास के गाँव के किसान भी आ गये थे। हजारो आदमियों की भीड़ थी। चौधरी उन्हें स्वराज्य विषयक उपदेश दे रहे थे। बारम्बार भारतमाता की जयकार को ध्वनि उठती थी। एक ओर स्त्रियों का जमाव था। चौधरी ने अपना उपदेश समाप्त किया और अपनी गद्दी पर बैठे। स्वयंसेवकों ने स्वराज्यफंड के लिए चन्दा जमा करना शुरू किया कि इतने में भगतजी न जाने किधर से लपके हुए आये और श्रोताओं के सामने खड़े होकर उच्च स्वर से बोले:-

भाइयो, मुझे यहाँ देखकर अचरज मत करो, मैं स्वराज्य का विरोधी नहीं हूँ। ऐसा पतित कौन प्राणी होगा जो स्वराज्य का निन्दक हो, लेकिन इसके प्राप्त करने का वह उपाय नहीं है जो चौधरी ने बतलाया है और जिस पर तुम लोग लट्टू हो रहे हो। जब आपस में फूट और राड़ है तो पंचायतों से क्या होगा? जब विलासिता का भूत सर पर सवार है तो वह कैसे हटेगा, मदिरा की दुकानों का बहिष्कार कैसे होगा? सिगरेट, साबुन, मोजे, बनियाइन, अद्धी, तंजेब से कैसे पिण्ड छूटेगा? जब सेब और हुकूमत की लालसा बनी हुई है तो सरकारी मदरसे कैसे छोड़ोगे?