के साथ बैठकर ताबीज लेने चला। गंडे-ताबीज पर उसे विश्वास न था; पर वृद्धजनों के
आशीर्वाद पर था, और उस ताबीज को वह केवल आशीर्वाद समझ रहा था!
रास्ते में बुढ़िया ने कहा- मैंने तुमसे कहा था; वह तुम भूल गए, बेटा?
अमर सचमुच भूल गया था। शरमाता हुआ बोला-हां, पठानिन. मुझे याद नहीं आया। मुआफ करो।
"वही सकीना के बारे में।"
अमर ने माथा ठोककर कहा-हां माता, मुझे बिल्कुल खयाल न रहा।
"तो अब खयाल रखो, बेटा | मेरे और कौन बैठा हुआ है जिससे कहूं? इधर सकीना ने कई रूमाल बनाए हैं। कई टोपियों के पल्ले भी काढ़े हैं, पर जब चीज बिकती नहीं, तो दिल नहीं बढ़ता।"
"मुझे वह सब चीजें दे दो। मैं बेचवा दूंगा।"
"तुम्हें तकलीफ न होगी?"
"कोई तकलीफ नहीं। भला इसमें क्या तकलीफ?"
अमरकान्त को बुढ़िया घर में न ले गई। इधर उसकी दशा और भी हीन हो गई थी। रोटियों के भी लाले थे। घर की एक-एक अंगुल जमीन पर उसकी दरिद्रता अंकित हो रही थी। उस घर में अमर को क्या ले जाती? बुढ़ापा निस्संकोच होने पर भी कुछ परदा रखना ही चाहता है। यह उसे इक्के ही पर छोड़कर अंदर गई, और थोड़ी देर में ताबीज और रूमालों की बकची लेकर आ पहुंची।
"ताबीज उसके गले में बांध देना। फिर कल मुझसे हाल कहना।"
"कल मेरी तातील है। दो-चार दोस्तों से बात करूंगा। शाम तक बन पड़ा तो आऊंगा, नहीं फिर किसी दिन आ जाऊंगा।"
घर आकर अमर ने ताबीज बच्चे के गले में बांधी और दूकान पर जा बैठा। लालाजी ने पूछा-कहां गए थे? दूकान के वक्त कहीं मत जाया करो।
अमर ने क्षमा-प्रार्थना के भाव से कहा-आज पठानिन आ गई। बच्चे के लिए ताबीज देने को कहा था, वही लेने चला गया था।
"मैंने अभी देखा। अब तो अच्छा मालूम होता है। दुष्ट ने मेरी मूंछे पकड़कर खींच ली। मैंने भी कसकर एक घूसा जमाया बच्चा को। हां, खूब याद आई, तुम बैठो, मैं जरा शास्त्रीजी के पास से जन्म-पत्री लेता आऊ। आज उन्होंने देने का वादा किया था।"
लालाजी चले तो अमर फिर घर में जा पहुंचा और बच्चे को गोद में लेकर बोला-क्यों जी; तुम हमारे बापू की मूंछे उखाड़ते हो । खबरदार, जो फिर उनकी मूछे छुई, नहीं दांत तोड़ दूंगा।
बालक ने उसकी नाक पकड़ ली और उसे निगल जाने की चेष्टा करने लगा, जैसे हनुमान सूर्य को निगल रहे हों।
सुखदा हंसकर बोली-पहले अपनी नाक बचाओ, फिर बाप को मूंछे बचाना।
सलीम ने इतने जोर से पुकारा कि सारा घर हिल उठा।
अमरकान्त ने बाहर आकर कहा-तुम बड़े शैतान हो यार, ऐसा चिल्लाए कि मैं घबरा