पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१११

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बंकिम-निबन्धावली—
 

समाजमें रहकर हम सब दृश्योंको देखने नहीं पाते—सब बातोंमें बुद्धिसे काम लेनेका हमें अवसर नहीं मिलता। मनुष्यको मारकर विज्ञान नहीं सीखने पति—अथवा राजाके घरमें घुसकर वहाँका दृश्य देखने नहीं पाते । ये बातें समाजके लिए मंगलकी होने पर भी स्वानुवर्तितामें बाधा डालनेवाली हैं। और, इसीसे ये सामाजिक नित्य दुःख हैं।

दारिद्यकी बात पहले ही लिखी जा चुकी है। असामाजिक अवस्थामें कोई गरीब नहीं है । वनके फल-मूल और पशु सबको आहारके लिए मिल सकते हैं; नदीके जल और वृक्षकी छाँहमें किसीका इजारा नहीं है। खाना, पीना और आश्रय, जितना शरीर धारण करनेके लिए आवश्यक है, उससे अधिक कोई नहीं चाहता । न वैसा करनेकी कोई आवश्यकता समझता है और न वैसा करता है। इसी कारण एककी अपेक्षा दूसरा गरीब नहीं हो सकता। इसी कारण मानना पड़ता है कि असामाजिक अवस्थामें दरिद्रता नहीं है। दारिद्य तो एकसे दूसरेका मुकाबिला करनेकी बात है। वही तारतम्य या एकका दूसरेसे मुकाबिला सामाजिकताका नित्य फल है। दारिद्य इसीसे सामाजिकताका नित्य कुफल है।

ये सब सामाजिकताके फल हैं । जबतक मनुष्य समाजबद्ध रहेगा, तब तक ये नित्य दोष भी बने रहेंगे । किन्तु और भी कुछ सामाजिक दुःख हैं, जो अनित्य हैं और मिटाये जा सकते हैं। बहुत लोग कहते हैं कि इस देशमें जो विधवायें ब्याह नहीं कर सकती, यह सामाजिक कुप्रथा—सामाजिक दुःख है, स्वाभाविक नहीं है । समाजकी गति फिरते ही यह दुःख दूर हो सकता है। हिन्दूसमाजके सिवा अन्य समाजमें यह दुःख नहीं है। ऐसे ही स्त्रियाँ सम्पत्तिकी अधिकारिणी नहीं हो सकतीं, यह विलायती समाजका एक सामा- जिक दुःख है । व्यवस्थापक समाजकी लेखनीकी एक सतरसे यह दुःख दूर हो सकता है। अनेक समाजोंमें यह दुःख नहीं है। भारतवर्षके लोग अपने देशमें राजकाजके ऊँचे पदोंको नहीं पासकते, यह एक दूर हो सकनेवाले सामाजिक दुःखका उदाहरण है।

जो सामाजिक दुःख नित्य और अनिवार्य हैं, उन्हें भी दूर करनेके लिए मनुष्य यत्न करते हैं। सामाजिक दरिद्रताको दूर करनेकी चेष्टा करनेवाले

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