पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१२१

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बंकिम-निबन्धावली—
 
प्यारका अत्याचार।

लोगोंका विश्वास है कि केवल शत्रु अथवा स्नेह, दया, अनुकूलता आदिसे रहित व्यक्ति ही हमारे ऊपर अत्याचार करते हैं । किन्तु यह बात हमारे ध्यानमें नहीं आती कि उनकी अपेक्षा भी भारी अत्याचार कर- नेवाले एक श्रेणीके लोग हैं । जो प्यार करता है वही अत्याचार करता है । प्यार करनेसे ही अत्याचार करनेका अधिकार प्राप्त हो जाता है । मैं अगर तुमको प्यार करता हूँ तो तुमको मेरा मत मानना पड़ेगा, मेरी बात सुननी पड़ेगी, मेरा अनुरोध रखना पड़ेगा । तुमारा इष्ट हो या अनिष्ट, तुमको मेरा मत स्वीकार करना पड़ेगा । यह अवश्य स्वीकार करना पड़ता है कि जो प्यार करता है, वह जान-बूझकर तुम्हारी बुराईके लिए तुमसे अनुरोध नहीं करेगा । किन्तु कौन कार्य मंगलजनक है और कौन अमंगल- जनक, इसकी मीमांसा कठिन है। इस बारेमें अक्सर दो आदमियोंकी राय नहीं मिलती। ऐसी अवस्थामें कार्यकर्ता और उस कार्यका फल भोगनेवाला इस बातका पूर्ण अधिकारी है कि वह अपने मतके अनुसार ही कार्य करे । उसके मतके विरुद्ध उससे काम करानेका अधिकार केवल राजाको ही है । केवल राजा ही इस लिए इस बातका अधिकारी है कि हम लोगोंने उसे समाजका हित अहित जाननेवाला मानकर राज्यासनपर बिठलाया है। केवल राजाके ही सदसद्विवेकको अभ्रान्त मानकर उसे हमने अपनी प्रवृत्तियोंके दमन करनेका अधिकार दिया है। जो अधिकार हमने दिया है, उसके अनुसार अगर वह कार्य करे तो उससे किसीके ऊपर अत्याचार नहीं हो सकता। परन्तु सब समय और सब विषयोंमें हमारी प्रवृत्तियोंके दमनका अधिकार उसे भी नहीं । हमारे जिस कार्यसे वह अन्यके अनिष्टका अनुमान करे, उस कार्यकी प्रवृत्तिको रोकनेका ही उसे अधिकार है। जिस कार्यसे केवल हमारा ही अनिष्ट वह समझे, उस कार्यकी प्रवृत्तिको रोकनेका उसे भी कोई अधिकार नहीं है*। जिससे केवल

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* यदि राजाका ऐसा अधिकार स्वीकार किया जाय तो रोगका इलाज न करनेवालों अथवा लड़कपन या बुढ़ापेमें ब्याह करनेवालोंको भी राजदण्ड मिलना चाहिए। और अगर अस्वीकार किया जाय, तो सतीदाह-निवारण आदि नियमोंका समर्थन नहीं किया जा सकता।

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