पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/१६५

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बंकिम-निबन्धावली—
 

वधके समय वज्रकी सहायतासे जो मैंने गर्जन किया था, तुम उस गर्जनको सुननेकी इच्छा न करना—डर मालूम होगा।

बरसूऺगा क्यों नहीं ? देखो, कितनी ही जूहीकी कलियाँ मेरे जलकणोंकी आशासे ऊपर मुँह उठाये हुए हैं। उनके मुखमें स्वच्छ जल मैं न सींचूँगा तो और कौन सींचेगा?

बरसूऺगा क्यों नहीं ? देखो, नदियोंका शरीर अभी तक पुष्ट नहीं हुआ। वे मेरी दी हुई जलराशिको पाकर परिपूर्ण हृदयसे हँसती हँसती, नाचतीं नाचतीं, कलरव करती हुईं अनन्त सागरकी ओर चलेंगी। यह देखकर किसे बरसनेकी साध न होगी ?

मैं नहीं बरसूऺगा। देखो, यह पाजी औरत मेरे ही दिये पानीको नदीसे कलसीमें भर कर लिये जाती है और “ आग लगे इस बरसनेपर; बूंदका तार नहीं टूटता !" कह कर मुझको ही गालियाँ देती चली जाती है। मैं नहीं बरसूऺगा।

देखो, घरमें पानी टपकनेके कारण किसान मुझको ही गालियाँ दे रहा है। नहीं तो वह किसान ही काहेका ? मेरा जल न मिलता तो उसकी खेती न होती—मैं उसका जीवनदाता हूँ। भैया, मैं न बरतूंगा।

मुझे याद है:—

मन्दं मन्दं नुदति पवनश्चानुकूलो यथा खां ।

वामश्चायं नदति मधुरं चातकस्ते सगर्वः ॥

कालिदास वगैरह जहाँ मेरी स्तुति करनेवाले हैं वहाँ मैं क्यों न बरतूंगा? मेरी भाषाको कविवर शेली समझते थे। जब मैं कहता हूँ—being fresh showers for the thirsting flowers, तब उस गंभीर वाणीके मर्मको शेली जैसा कवि हुए बिना कौन समझ सकता है? क्यों, जानते हो ? कवि मेरे ही समान हृदयमें बिजलीकी आग धारण करता है। प्रतिभा ही उसके अनन्त हृदयाकाशकी बिजली है।

मैं अत्यन्त भयंकर हूँ। जब अन्धकारमें मैं कृष्ण-करालरूप धारण करता हूँ, तब मेरी टेढ़ी भोंहोंको कौन सह सकता है ? मेरे ही हृदयकी यह

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