पृष्ठ:बंकिम निबंधावली.djvu/२९

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बंकिम-निबन्धावली—
 

मैं—क्यों, तभी श्रीकृष्ण क्यों कहते हैं ?

बाबाजी—गीतामें श्रीकृष्णजीने अपनेको इन दोनों रूपोंसे ध्येय बत- लाया है। मैं उनका दासानुदास हूँ, इस कारण उनको मैं इसी नामसे पुकारता हूँ। एक बार बोलो जय श्रीकृष्णचन्द्रकी। बोलो—कृष्ण—कृष्ण हरे हरे!

मैं—बाबाजी, इतना कृष्णभजन क्यों कर रहे हो ? यह तो बतलाओ कि 'अहिंसा' वैष्णवोंका धर्म है या नहीं?

बाबाजी—अहिंसा वैष्णव-कन्या अवश्य है, किन्तु वह कुल त्यागकर बौद्धोंके घर चली गई है, इसीसे वह जातिभ्रष्ट हो गई है।

मैं—मैं आपकी यह पहेली नहीं समझ सका।

माबाजी—देख भैया, वैष्णव बननेके पहले यह समझ लेना चाहिए कि वैष्णव-धर्म क्या है ? कंठी बाँधनेसे, तुलसीकी माला पहननेसे, छाप लगानसे, निरामिप भोजन करनेसे, पञ्च संस्कारसे या वैष्णवी रखनेसे कोई वैष्णव नहीं कहा जासकता। अच्छा बतला तो सही, जगतमें सबसे. श्रेष्ठ वैष्णव कौन हुआ है ?

मैं—नारद, ध्रुव, प्रह्लाद ।

बाबाजी—प्रहाद ही सबमें श्रेष्ठ है। सुन, प्रह्लादने वैष्णवधर्मकी क्या व्याख्या की है-

सर्वत्र दैत्याः समतामुपेत्य समत्वमाराधनमच्युतस्य ।

अर्थात् हे दैत्यगण, तुम सर्वत्र समदर्शी बनो । समत्व अर्थात् सबको अपने समान जानना ही विष्णुकी आराधना है। कंठी,-तिलक, माला,-छाप क्या दिखाता है रे मूर्ख ! यह समदर्शी भाव ही अहिंसाधर्मका यथार्थ तात्पर्य है । समदर्शी होनेपर हिंसा रह नहीं सकती । यों समदर्शी होनेपर विष्णुका नाम न जानने पर भी मनुष्य वैष्णव हो सकता है। जो ईसाई या मुसलमान मनुष्यमात्रको अपने समान समझता है, वह चाहे ईसाकी पूजा करे और चाहे पीर-पैगम्बरको माने, वही सच्चा वैष्णव है। और तुम्हारे कंठी-तिलकवाले दलमें जो समदर्शी नहीं हुआ, वह वैष्णव भी वैष्णव नहीं है।

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