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पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/१९४

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१६२ बगुला के पंख लम्बा डीलडौल, भरा हुआ शरीर, ऊंची करारी आवाज़, भारी चेहरे पर भारी- भारी सफेद मूंछों का गुच्छा । बगलगीर होकर लाला फकीरचंद से मिले । बातचीत प्रारम्भ हुई। 'कहो लाला, आज कैसे इधर भूल पड़े, क्या हाल-चाल है काम-धन्धे का ?' 'लाला, काम-धन्धा तो इस वक्त दूसरा ही चल रहा है।' 'कोई नया धन्धा उठा लिया है क्या ?' 'क्या कहूं, लोगों ने ज़बर्दस्ती उम्मीदवार खड़ा कर दिया है। अब चुनाव जीतना होगा। मेरे बूते का काम तो है नहीं। बस दौड़ा-दौड़ा तुम्हारे ही पास आया हूं। तुम जानो मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक।' 'वही कमेटीवाला मामला है क्या ? एक बार तो पिट चुके हो। अब फिर खड़े हो गए ?' 'पर इस बार सब कसर निकाल लेनी है । अबकी बार पार्लियामैंट की कुर्सी पर वैलूंगा।' 'चलो अच्छा ही है । भई, हम तो तुम्हारी बढ़ोतरी चाहते हैं। कहो, मुझे क्या करना होगा ?' 'इलाके में जितने बिरादरी के आदमी हैं, वे सब अपनी मुट्ठी में होने चाहिए। बस इतना ही काम है।' 'तो यह कौन मुश्किल काम है ! कौन सुसरा मेरे सामने सिर उठा सकता है ! पर मुकाबिले में कौन खड़ा हुआ है ?' 'जोगीराम है।' 'जोगीराम ! छिः, कल ही से उसकी दलाली बन्द कर देंगे । तुम्हारे मुका- बिले जोगीराम क्या खाकर आएगा लाला फकीरचंद !' 'यह बनिए की जात ही ऐसी है लाला, कि अपनी ही काट करती है।' 'तो फिक्र न करो लाला, बिरादरी-भाई एक भी तुम्हारे खिलाफ नहीं जा सकता।' लाला फकीरचंद ने हाथ जोड़कर कहा, 'बस, अब तुम्हारा ही आसरा है चौधरी, यह तुम्हारे ही बल-बूते का काम है। खर्च की परवाह नहीं। पर काम ऐसा होना चाहिए कि पौ-बारह ।' 'फिक्र न करो प्यारे, फिक्र न करो। बस दो ही चार दिन में अपनी ब-१२