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पृष्ठ:बगुला के पंख.djvu/३५

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बगुला के पंख स्वस्थ काम-भूख की बाबत सोच रहा था, जिसे वह अच्छी तरह जानता था। और प्रतिक्षण उसके नेत्रों में देखता था। इस समय वह रोगी, अस्वस्थ था। इस योग्य' न था । वह सोच रहा था, यदि यह रोग वर्षों तक चलता चला जाए तो एक स्वस्थ युवती और चिर रोगी का अटूट बन्धन मर्यादा और नैतिकता के तर्कसम्मत बल पर कब तक निभेगा ? उसे कैसे न्यायसंगत कहा जा सकता है ? पर उसे ढीला भी कैसे छोड़ा जा सकता है ? समाज का संगठन भी तो एक वस्तु है। वह इस समय सोच रहा था, नारी और पत्नी की भिन्न- रूपता की बात । नारी जो भूख से तड़प रही थी, और पत्नी जो वेदना से सिसक रही थी, निराशा से मूच्छित-सी हो रही थी। इस समय सुसज्जिता पद्मा के शरीर में वह दोनों ही छाया-मूर्तियों के अन्तर्द्वन्द्व का दर्शन कर रहा था। पद्मा ने और निकट आकर कहा, 'इस तरह चुपचाप क्या सोच रहे हो ?' शोभाराम ने उसका हाथ खींचकर अपनी छाती पर रख लिया। और अपने पास बिठाकर कहा, 'तुम्ही बताओ, क्या सोच रहा हूं ?' 'मैं कैसे जान सकती हूं ?' 'खूब अच्छी तरह जानती हो, मेरी आत्मा की गहराई तक तुम्हारी पहुंच है।' पद्मा ने जैसे सचमुच ही पति की अन्तवदना को पहचान लिया। उसने उसके वक्ष पर झुककर उसका चुम्बन करते हुए कहा, 'व्यर्थ की बातें सोचकर क्या होगा ? तुम जल्द अच्छे हो जायो। फिर हम लोग कहीं स्वस्थ जलवायु- वाले स्थान में चलकर रहेंगे।' 'मेरी अपेक्षा ये पशु-पक्षी कितने सौभाग्यशाली हैं पद्मा, जो अपनी प्रेयसी के साथ सभी प्रकार के सहवास का आनन्द तृप्त होकर भोग करते हैं। लेकिन मैं न उसका एक कण ले, न दे सकता हूं।' एकाएक शोभाराम ने देखा, पद्मा ने दोनों हाथों से अपना मुंह ढांप लिया है और उसकी चम्पे की कलियों जैसी उंगलियों से झर-झर मोती झर रहे हैं। शोभाराम अवाक्-निढाल होकर कुर्सी पर पड़ गया। एक शब्द भी उसके मुंह से नहीं निकला । उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो उसके सारे ही शरीर का रक्त खींचकर बाहर निकाल लिया गया हो। धीरे-धीरे उसने देखा कि पद्मादेवी ने अपनी भुज-वल्लरी से उसे समेटकर .