१८० दाण भट्ट की आत्मकथा बताया है कि नारी की सफलता पुरुष को बाँधने में है और सार्थकता उसको मुक्त करने में । सारा जीवन मैं इसी विश्वास पर चलती रही हूँ। जप-तप, साधन-भजन सब का एक लक्ष्य रहा है--सार्थकता ! त्रिपुर भैरवी का साक्षात्कार अभी तक तो नहीं हुआ, बेटी, आगे की बात गुरु जानें । पर तूने सत्य को देखा है। तेरी बात ठीक भी हो सकती हैं । कुछ देर कुछ भूली-हुई बात को याद-मी करती हुई महा- माया बोल–“नारी की सार्थकता ! और फिर चुप हो गई। | मैंने बहुत देर तक वहाँ छिप रहना ठीक नहीं समझा। जितना सुन चुका हूँ, उतना ही बहुत है। अधिक से अभिमान बढ़ेगा, मोह उद्रिक होगा, ममता कठिन हो । यहीं रुक जाना अच्छा है । बाण भट्ट को जो पुरस्कार मिला है, वह प्राप्य से कई लाख गुना है । उससे आगे लोभ की पराकाष्ठा होगी। मैंने कण्ठ से खाँसने की-सी ध्वनि की और धीरे-धीरे उस ओर बढ़ा, जिधर महामाया और भट्टिनी बैठी थों । आहट पाकर वे संभल गई | भट्टिनी ने केवल एक बार अपने अविलोल अपांग से मुझे देखा । वे समझ लेना चाहती थीं कि उनकी बात मैंने कहीं सुन तो नहीं ली । परन्तु बाण इतना कचा आदमी नहीं है। सब झूठ का अभिनय करते ही तो उसने जीवन काट दिया है। है स्वर्ग की देवांगना, तुमने मयं के इन अभिनेताओं को समझने में गलती की है, लेकिन यह प्रमाद बुरा नहीं है। महामाया मुझे देख कर प्रसन्न हुई। अपने झोले से कुछ फल- मूल निकाल कर उन्होंने मुझे दिए और बताया कि मेरे न खाने से ही भट्टिनी अभी तक उपोषित हैं। भोजन के बाद मुझे फिर दूसरी ओर प्रस्थान करना पड़ा। निपुणिका को खोजना गौण था, भट्टिनी को अवसर देना प्रधान । अबकी बार पूर्व की ओर चला । दिन तो पहले ही ढल चुका था । लगभग एक क्रोश जाने पर एक आभीर युवतियों की दुल नृत्य-गान करता हुआ मिला। मर्दल, मुरज और मुरली