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पृष्ठ:बाहर भीतर.djvu/१४५

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जैसलमेर की राजकुमारी १४७ थी। पश्चिमी फाटक पर जाकर उसने देखा, द्वार-रक्षक द्वार पर न था। कुमारी ने पुकारकर कहा-यहा पहरे पर कौन है ? एक वृद्ध योद्धा ने आगे बढ़कर कुमारी को मुजरा किया। उसने धीरे से कुमारी के कान मे कुछ और भी कहा। वह हंसती-हसती बोली-ऐसा? अच्छा वे तुम्हे घूस देगे, बाबाजी साहब ? "हां, बेटी," बूढ़ा योद्धा तनिक हंस दिया। उसने गाठ से सोने की पोटली निकालकर कहा-यह देखो, इतना सोना है। "अच्छी बात है । ठहरो, हम उन्हें पागल बना देंगे। बाबाजी, तुम आधी गत को उनकी इच्छानुसार द्वार खोल देना।" वृद्ध भी हसता हुआ सिर हिलाता हुआ चला गया। 7 दो बज गए थे । चन्द्रमा की चादनी छिटक रही थी। कुछ आदमी दुर्ग की ओर छिपे-छिपे आ रहे थे। उनका सरदार मलिक काफूर था। उसके पीछे सौ चुने हुए योद्धा थे। सकेत पाते ही द्वारपाल ने प्रतिज्ञा पूरी की। विशाल महराब- दार फाटक खुल गया। सौव्यक्ति चुपचाप दुर्ग मे घुस गए । काफूर ने मन्द स्वर मे कहा-यहां तक तो ठीक हुआ। अब हमे उस गुप्त मार्ग से दुर्ग के भीतरी महलों मे पहुचा दो जिसका तुमने वादा किया है। राजपूत ने कहा-मैं वायदे का पक्का हू, मगर बाकी सोना तो दो। "यह लो।" यवन सेनापति ने मुहरो की थैली हाथ मे धर दी । राजपूत फाटक में ताला बन्द कर चुपचाप प्राचीर की छाया में चला। वह लोमड़ीकी भाति चक्कर खाकर कही गायब हो गया। यवन सैनिक चक्रव्यूह मे फस गए, न पीछे का रास्ता मिलता था, न आगे का । वास्तव मे सब कैद हो गए थे और अपनी मूर्खता पर पछता रहे थे। मलिक काफूर दांत पीस रहा था। राजकुमारी की सहेलिया इतने चूहों को चूहेदानी मे फसाकर हंस रही थी। यवन-सैन्य का घेरा दुर्भेद्य था। खाद्य-सामग्री धीरे-धीरे कम हो रही थी धेरे के बीच से किसीका आना अशक्य था। राजपूत भूखो मर रहे थे। राजकुमारी का शरीर पीला हो गया था। उसके अंग शिथिल हो गए थे, पर नेत्रो का तेज वैसा ही था। उसे कैदियों के भोजन की चिन्ता थी। किले का प्रत्येक आदमी