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बिहारी-सतसई
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अन्वय—सयान अयान ह्वै जात वे ठग काहि न ठगै। लाल के ललचौंहैं नैन लखि को न ललचाइ।

ह्वै जात=हो जाता है, बन जाता है। सयान=चतुर। अयान=अजान, अज्ञान, मूर्ख। काहि=किसे। ललचौंहैं=ललचानेवाले।

चतुर भी मूर्ख बन जाते हैं। वे ठग किसे नहीं ठगते। श्रीकृष्ण के (उन) लुभावने नेत्रों को देखकर कौन नहीं ललचता?

जसु अपजसु देखत नहीं देखत साँवल गात।
कहा करौं लालच-भरे चपल नैन चलि जात॥२३७॥

अन्वय—जसु अपजसु नहीं देखत, देखत साँवल गात। कहा करौं लालच-भरे चपल नैन चलि जात।

साँवल=श्यामल। कहा=क्या। चपल=चंचल।

यश-अपयश (कुछ) नहीं देखते—किस काम के करने से यश होगा और किस काम के करने से अपयश, यह नहीं विचारते; देखते हैं (केवल श्रीकृष्ण का) साँवला शरीर। क्या करूँ, लालच से भरे (मेरे) चंचल नयन (बरबस उनके पास) चले जाते हैं।

नख-सिख-रूप भरे खरे तौ माँगत मुसकानि।
तजत न लोचन लालची ए ललचौहीं बानि॥२३८॥

अन्वय—नखसिख रूप खरे भरे तौ मुसकानि माँगत। लालची लोचन ए ललचौंहीं बानि न तजत।

नख-सिख=नख से शिखा तक, एँड़ी से चोटी तक, समूचा शरीर। खरे=अत्यन्त, पूर्ण रूप से। ललचौंही बानि=ललचाने की आदत।

(श्रीकृष्ण के) नख-शिख सौंदर्य से मेरे नेत्र पूर्ण रूप से भरे हैं, तो भी मुसकुराहट माँगते हैं—श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण शरीर की अपार शोभा देखकर भी तृप्त नहीं होते, उनकी मुसुकुराहट देखना चाहते हैं। (मेरे) लालची नेत्र (अपनी) यह ललचाने की आदत छोड़ते ही नहीं।

छ्वै छिगुनी पहुँचौ गिलत अति दीनता दिखाइ।
बलि बावन की ब्यौंतु सुनि को बलि तुम्हैं पत्याइ॥२३९॥