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बिहारी-सतसई
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नोट—विपरीत-रति में ऊपर रहने के कारण नायिका की टिकुली गिरकर नीचे पड़े हुए नायक के ललाट पर सट गई।

राधा हरि हरि राधिका बनि आए संकेत।
दम्पति रति-बिपरीत-सुखु सहज सुरत हूँ लेत॥३४३॥

अन्वय—संकेत राधा हरि, हरि राधिका बनि आए सहज सुरत हूँ दम्पति बिपरीत रति सुखु लेत।

बनि आए = बनकर आये, रूप धरकर आये। संकेत = गुप्त मिलन का पूर्व-निश्चित स्थान। दम्पति = स्त्री-पुरुष दोनों, संयुक्त। सहज = स्वाभाविक। सुरत = समागम। हूँ = भी।

गुप्त मिलन के स्थान पर राधा कृष्ण का (रूप धरकर आई) और कृष्ण राधा का रूप धरकर आये (अतएव, इस रूप-बदलौअल के कारण) स्वामाविक समागम में दम्पति (राधा और और कृष्ण—दोनों) विपरीत रति का सुख ले रहे हैं।

नोट—कृष्ण के वेष में राधा ऊपर और राधा के वेष में कृष्ण नीचे हैं। परिवर्तित रूप के अनुसार तो स्वाभाविक रति है। पर वास्तव में विपरीत रति ही है।

रमन कह्यो हठि रमनि कौं रति विपरीत बिलास।
चितई करि लोचन सतर सलज सरोस सहास॥३४४॥

अन्वय—रमन हठि बिपरीत-रति बिलास रमन कौं कह्यौ लोचन सतर सलज सरोस सहास करि चितई।

सतर = तिरछी। सलज = लजा-सहित, लजीली। सरोस = क्रोध-सहित, रोषीली, लाल। सहास = हास-युक्त, हँसीली, प्रफुल्ल।

रमण (श्रीकृष्ण) ने हठ करके (राधा से) विपरीत-रति के विलास में (रमने) कहा। (इसपर राधा ने) अपनी आँखों को तिरछी, लजीली, रोसीली और हँसीली बनाकर (श्रीकृष्ण) की ओर देखा।

रँगी सुरत-रँग पिय-हियै लगी जगी सब राति।
पैंड-पैंड़ पर ठठुकि कै ऐंड़-भरी ऐंड़ाति॥३४५॥