पर, और उसके बोझ से रूँधी हुई उसासें आती हैं सौतिन के हृदय में (कैसा आश्चर्य है!)
ढीठि परोसिनि ईठि ह्वै कहे जु गहे सयानु।
सबै सँदेसे कहि कह्यौ मुसुकाहट में मानु॥४७३॥
अन्वय—ढीठि परोसिनि ईठि ह्वै जु सयानु गहे कहे सबै सँदेसे कहि कह्यौ मुसुकाहट में मानु।
ढीठि = ढिठाई से भरी, धृष्ट, शोख। ईठि = इष्ट-मित्र, सुहृद्। सयानु गहैं = चतुराई के साथ।
धृष्ट पड़ोसिन ने मित्र बनकर जो कुछ कहने थे सो चतुराई के साथ कहे (और अन्त में कहा कि) इन सब सन्देशों को कहकर (अन्त में तुम्हारे प्रीतम ने) कहा है कि केवल मुस्कुराहट में मान कैसा?
नोट—कृष्ण कवि की सवैया से इसका भाव स्पष्ट हो जाता है—"जाहिं परोसिन के दुख पीसों झुकी ललना रिस जी में ढिठाई। सो ही परोसिन ढीठ यहाँ लगि ईट ह्वै याहि मनावन आई। प्रीतम के जे सँदेस हुते वे कहे सबही करिके चतुराई। येते पै मान कह्यौ मुसुकाय यहै कहि प्यार खरी कै रिसाई।"
चलत देत आभारु सुनि उहीं परोसिहिं नाह।
लसी तमासे की दृगनु हाँसी आँसुनु माँह॥४७४॥
अन्वय—चलत नाह उहीं परोसिहि आभारु देत सुनि, दृगनु आँसुनु माँह तमासे की हाँसी लसी।
आभारु = घर की देख-भाल का भार। नाह = नाथ, पति। लसी = शोभित हुई। तमासे की हँसी = कौतुक की हँसी। दृगनु = आँखों में। आँसुनु माँह = आँसुओं के बीच।
चलते समय अपने पति को उसी पड़ोसी (अपने गुप्त प्रेमी) को घर की देख-भाल का भार देते सुनकर उसकी आँखों में आँसुओं के बीच कौतुक की हँसी शोभित हुई।
नोट—यद्यपि आँसू ढालकर ऊपर से वह दिखला रही है कि पति के (विदेश) जाने से वह दुःखित है; किन्तु यह देखकर कि घर की देख-रेख