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सटीक : बेनीपुरी
 

तन=नवीन। पथिक=बटोही, परदेशी। चकित-चित=घबराकर। पलास=ढाक, किंशुक, लाल फूल का एक पेड़। समुही=सामने। दवागि=दावाग्नि, दावानल, जंगल की आग—जो आप-ही-आप (जंगलों में) उत्पन्न होकर सारे वन को स्वाहा कर डालती है।

पलास के वन को फूला देख, उसे अपने सामने ही दावाग्नि समझ (डर से) घबराकर नया बटोही लौटकर अपने घर की ओर भाग चला। (वसन्त ऋतु में फूले हुए पलास उसे दावाग्नि के समान जान पड़े।)

अंत मरैंगे चलि जरैं चढ़ि पलास की डार।
फिरि न मरैं मिलिहैं अली ए निरधूम अँगार॥५६३॥

अन्वय—अंत मरैंगे चलि पलास की डार चढ़ि जरैं, अली फिरि मरैं ए निरधूम अँगार न मिलिहैं।

चलि=चलो। डार=डाल। निरधूम=बिना धुएँ की। अँगार=आग।

(विरहिणी नायिका विरह के उन्माद में पलास के फूल को आग का लाल अंगार समझकर कहती है—) अन्त में मरना ही है, तो चलो, पलास की डाल पर चढ़कर जल जायँ। अरी सखी, फिर मरने पर ऐसी बिना धुएँ की आग नहीं मिलेगी।

नाहिन ए पावक-प्रबल लुबैं चलैं चहुँ पास।
मानहु विरह बसंत कैं ग्रीषम लेत उसास॥५६४॥

अन्वय—चहुँ पाम ए पावक-प्रबल लुबैं नाहिन चलैं, बसंत कैं विरह मानहु ग्रीषम उमास लेत।

पावक-प्रबल=आग के समान प्रचंड। लुवैं=आँच भरी हवा, गर्म हवा के जबरदस्त झोंके ('लू' का बहुवचन 'लुबैं')। चहुँ पास=चारों ओर। उसास=आह भरी ऊँची साँसें।

चारों और ये आग के समान प्रबल लुएँ नहीं चल रही है, परन् वसंत के विरह में मानो ग्रीष्म-ऋतु लम्बी साँसें ले रही है—आह भर रही है।

कहलाने एकत बसत अहि-मयूर मृग-बाघ।
जगतु तपोबन सौ कियौ दीरघ दाघ निदाघ॥५६५॥