पृष्ठ:बिहारी-सतसई.djvu/२५

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सटीक : बेनीपुरी
 

बन जाते हैं--प्रयाग के समान पवित्र और पुण्यदायक हो जाते हैं ।

सघन कुंज छाया सुखद सीतल सुरभि समीर ।
मनु है जात अजौं वहै उहि जमुना के तीर ॥५॥

अन्वय-कुंज सघन, छाया सुखद, समीर सीतल सुरभि उहि यमुना के तीर अजौं मनु चहै ह जात ।

सुरभि समीर = वासंतिक फूलों की गंध से सुगंधित हवा । है जात = हो जाता है । अजौं = आज भी ।

जहाँ की कुंजे धनी हैं, छाया सुख देनेवाली है, पवन शीतल और सुगंधित है, उस यमुना के तीर पर जाते ही आज भी मन वैसा ही हो जाता है--कृष्ण-प्रेम में उसी प्रकार मग्न हो जाता है ।

सखि सोहति गोपाल कैं उर गुंजन की माल ।
बाहिर लसति मनौ पिए दावानल की ज्वाल ॥६॥

अन्वय-सखि, गोपाल कैं उर गुंजन को माल सोहति, मनौ पिए दावानल की ज्वाल बाहर लसति ।

गुंजन = गुंजा, घुँघची;-एक जंगली लता का फल, जो लाल मूँगे को तरह छोटा होता है; उसको माला सुन्दर होती है । गोपाल कृष्ण । दावानल = जंगल में लगी हुई आग । ज्वाल = आग की लाल लपट । लमति = शोभती है ।

हे सखी ! श्रीकृष्ण की छाती पर (लाल-लाल) गुंजाओं की माला शोभती है । (वह ऐसी जान पड़ती है ) मानों पिये हुए दावानल की ज्वाला बाहर शोभा दे रही हो-श्रीकृष्ण जिस दावाग्नि को पी गये थे, उसी की लाल लपट बाहर फूट निकली हों ।

नोट-एक समय वृन्दावन में भयानक आग लगी थी । कहा जाता है, श्रीकृष्ण उस अग्नि को पी गये थे । वृन्दावन जलने से बच गया था ।

जहाँ जहाँ ठाढ़ौ लख्यौ स्यामु सुभग सिरमौरू ।
बिनहूँ उनु छिन गहि रहतु हमनु अजौं वह ठौरु ।।७।।