| बिहारीबिहार। क्यों गरबीली ॥ छन मैं जैहै सुघरपनो पारो पारिहै तन । परकर परि कै सक-
- चि फेर फिरि आवंत नहिँ मन ।। २८२ ॥ : : :
- ब्रहक न इहिँ बहिनापने जब तब बीर बिनास ।।
बचै न बड़ी सबील हू चील्हघाँसुओ मास ॥ २३१ ॥ :: ।। चील्हघौंसुआ मास बेचै नहिँ काऊ उपायन । आँचनिकट नवनीत कहो
- कैसे गरि जाय न ॥ या स रहनि सम्हारि समझि के अपने ही मन । बह-
- नापन कछु निबह न सुकाब या सु मैं बहक न ॥ २८३ ॥
.. तू रहि साख हाँ हाँ लखौं चढ़ न अटा बलि बाल। ... | बिन ही ऊगे ससि समुझि दैहैं अरघ अकाल ॥ २३२ ॥ । दैहैं अरघ अकाल सबै दिन भूखे प्यासे । मान बदन तुअ चन्द होइहैं
- अधिक हुलासे ॥ चौथ हिँ पूरन बिधु लखि घबरै पाण्डित हू । सुकवि हठ
न जो तजै ढाँपि मुख आउँ अटा तू ।। २८४ ॥ दियौ अरघ नीचे चलौ, सकटं भाने. जाये। :: सुचती है औरै सबै ससि हिँ बिलोकें आय ॥ २३३॥ . ससि हिँ विलोकै यि सबै करि करि मन सुचिती। पूरन बिधु क्यौं भयो। जाइ यह जिय स दुचिती ॥ चहूँ चकोर हु गिरे परत चाहत रस पीयो । सुकवि अटकि क्यों रही अरघ तो विधि साँ दीयो ॥ २८५॥ . . . नाक चढ़ सीवी करै जितै छबीली छैल। .. फिर फिर भूलि उहै गहै पिय कॅकरीली गैल ॥ २३४॥ पिय कॅकरीली गैलं गहै न सरल मगु आवै । ज्यों ज्यों चिहुँकति तिया यह दोहा शृङ्गारसप्तशती में नही है इसमें कोई उत्तम उक्ति नहीं है, अश्लील औ वीभत्स प्रगट है।*