पृष्ठ:बिहारी बिहार.pdf/८५

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विहारीबिहार । . .। पुनः । सोहत ओढ़े पीतपट स्याम सलोने गात।। मन नीलमनिसेल पर आतप परया प्रभात ॥ ५॥

  • आतप परयो प्रभात ताहि स खिल्यो. कमलमुख । अलक भर लहराय*

जूथ मिल करत विविध सुख ॥ चकवा से दोउ नैन देखि इहिँ पुलकत मो-

  • हत । सुकवि विलोकहु स्याम पीतपट ओढे सोहत ॥ १३ ॥

आतप परयो प्रभात तासु की छांया जोई । कनकलता सी प्रिया अंग पै सारी सोई ।। सुकवि हहा चलि लखहु होत सुख कैसो जोहत । राधी सारी स्याम स्याम पट पीरे सोहतं ॥ १४ ॥ अधर धरत हरि के परत ओठ-दीठ-पट-जोति । हरित बाँस की बाँसुरी इन्द्रधनुषदुति होति ॥ ६ ॥ इन्द्रधनुषात होति पाइ घनस्यामसङ्ग छबि । हार लसत बकपॉति मनहूँ। कहि सके कौन कवि ॥ सुकवि पितम्बर सोई बीजुरी रही चमक करि । पा- | वस प्रगट दिखात मुरलिया अधर धरत हरि ॥ १५ ॥ किती न गोकुल कुलबंधू काहि न किहिँ सिख दीन । | कौनै तजी ने कुलगली व्है मुरलीसुरलीन ॥ ७॥ लीन भई क्याँ अरी नवेली नारि छवीली। चार दिना तै आइ भई एती गरवीली ॥ कान आँगुरी देइ भागु व्हैहै पुनि आकुल । सुकवि देखु बिललात गोपिका किती न गोकुल ॥ १६ ॥ व्है मुरलीसुरलीन लखहु पसु पछी मोहत । सुरी किन्नरी आदि टकटकी वाँधे जोहत ॥ मन्त्र बसीकर फूकि करत हरि सवक आकुल । सुकवि भट- कती फिरत गोपिका किती न गोकुल ॥ १७ ॥ । * युगन्तवर्णन ।