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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/११९

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(५६)

कहत कुँवर पुकारि "हैं हैं! रहन क्योँ नहिं देत?"
फेरि बूझत सारथी सोँ करत कर संकेत-
"कहा है यह? देखिबे मे मनुज सो दरसात;
विकृत, दीन, मलीन, छीन कराल औ नतगात।

कबहुँ जनमत कहा ऐसे हू मनुज संसार?
अर्थ याको कहा जो यह कहत 'होँ दिन चार?'
नाहि भोजन मिलत याको हाड़ हाड़ लखाय।
विपद या पै कौन सी है परी ऐसी आय?"

दियो उत्तर सारथी तब "सुनौ, राजकुमार;
बृद्ध नर यह और नहि कछु, जाहि जीवन भार;
रही चालिस वर्ष पहिले जासु सूधी पीठ,
रहे अंग सुडौल सब औ रही निर्मल दीठ।

लियो जीवन को सबै रस चूसि तस्कर काल,
हर्यो बल सब, फेरि मति गति कसो याहि बिहाल।
भयो जीवनदीप याको निपट तैलविहीन;
रहि गयो नहिं सार कछु, अब भई ज्योति मलीन।
रही जो लौ शेष, ताको नहिँ ठिकानो ठौर;
झलमलाति बुझायबे हित चार दिन लौँ और।
जरा ऐसी वस्तु है, पै, हे कुँवर मतिमान!
देत क्योँ या बात पै तुम व्यर्थ अपनो ध्यान?"