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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१७५

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पै प्राणिन में श्रेष्ठ मनुज जो बधत तुम्हें गहि,
ज्ञानी बोलत रक्तपात बिच पोसी मति लहि।
सोइ बुद्धि लै हैं प्रवृत्त ये नर बहुतेरे
आत्मक्लेश देबे में नाना भाँतिन करे"।

कहत योँ प्रभु शैलतट-पथ धरे गे कछु दूरि।
खुरन के आघात सोँ तहँ उठति देखी धूरि।
झुंड भारी भेड़ छेरिन को रह्यो है आय;
ठमकि पाछे दूब पै कोउ देति मुखै चलाय।

जितै झलकत नीर, गूलरलसी लटकति डार
लपकि ताकी ओर धावै छोड़ि पथ द्वै चार,
जिन्हैं बहकत लखि गड़रियो उठत है चिल्लाय
लकुट सोँ निज हाँकि पथ पै फेरि लावत जाय।

लखी प्रभु इक भेड़ आवति युगल बच्चन संग,
एक जिनमें कै रह्यो है चोट सोँ अति पंग।
छूटि पाछे जात, रहि रहि चलत है लँगरात;
थके नान्हें पाँव साँ है रक्त बहत चुचात।

ठमकि हेरति ताहि फिरि फिरि तासु जननि अधीर;
बढ़त आगे बनत है नहिं देखि शिशु की पीर।
देखि यह प्रभु लियो बढ़ि लँगरात पसुहि उठाय;
लादि लीनों कंध पै निज करन सोँ सहराय