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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१९१

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तहँ विजन वर्ग के बीच बसि प्रभु ध्यान धरि सोचत सदा
प्रारब्ध की गति अटपटी औ मनुज की सब आपदा,
परिणाम जीवन के जतन को, कर्म की बढ़ती लड़ी,
आगम निगम सिद्धांत सब औ पशुन की पीड़ा बड़ी,

वा शून्य को सब भेद जहँ साँ कढ़त सब दरसात हैं,
पुनि भेद वा तम को जहाँ सब अंत में चलि जात हैं।
या भाँति दोउ अव्यक्त बिच यह व्यक्त जीवन ढरत है
ज्यों मेघ साँ लै मेघ लौं नभ इंद्रधनु लखि परत है,

नीहार सोँ औ घाम सोँ जुरि जासु तन बनि जात है
जो विविध रंग दिखाय के पुनि शून्य बीच बिलात है,
पुखराज, मरकत, नीलमणि, मानिक छटा छहराय के,
जो छीन छन छन होत अंत समात है कहुँ जाय कै।

योँ मास पै चलि मास जात लखात प्रभु वन में जमे,
चिंतन करत सब तत्त्व को निज ध्यान में ऐसे रमे,
सुधि रहति भोजन की न, उठि अपराह्न में देखैं तहीं
रीतो परो है पात्र वामें एक हू कन है नहीं।

बिनि खात बनफल जाहि वलिमुख देत डार हिलाय हैं
औ हरित शुक जो लाल ठोरन मारि देत गिराय हैं।
द्युति मंद मुख की परि गई, सब अंग चिंता सोँ दहे,
बत्तीस लक्षण मिटि गए जो बुद्ध के तन पै रहे।