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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/१९४

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तपश्चर्य्या-त्याग


नूपुर बजाय देवदासी इंद्रमंदिर की।
जाति रहीँ वाही मग मोद के प्रवाह बहि।
संग मेँ समाजी कोउ डारे गर ढोल,
जासु मेँडरे पै मोरपंख मंडित मरोर लहि।
धारे एक बाँसुरी सुरीली मृदु तान भरी,
बीन तीन तार को चलो है एक हाथ गहि।
उतसव माहि काहू साज बाज साथ जात
अटपट बाट बीच ठमकत रहि रहि।

गोरे गोरे पायँन सौँ कढ़ि रही मंद मंद
पायल औ घूँघरू की रसभरी झनकार।
कर बीच कंकन औ कटि बीच किंकिनी हू
खनकि उठति संग पूरो करि बार बार।
धारि जो सितार हाथ पास पास चलो जात
आँगुरी चलाय रह्यो झूमि झनकारि तार।
तीर धरि तासु अलबेली मृदु तान छाँड़ि,
गाय उठीँ गीत यह अंगगति अनुसार-

रखौ तुम ठीक बीन को तार।
ना ऊँचो, ना नीचो होवै जमै रंग या बार।
गाय रिझाय करैं अपने बस हम सिगरो संसार।