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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२४५

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तिनहूँ बीच उछाह नाहिं थोरो दरसात,
इत उत डोलन लगत सबै ज्यों होत प्रभात।
घंटन को रव, बाजन की धुनि कहुँ सुनि पाय
लखत मार्ग मेँ कढ़ि, पेड़न चढ़ि सीस उठाय।
पै जब आवत नाहिँ कतहुँ कोउ परै लखाय
लगत झोपड़िन को सँवारिबे में पुनि जाय।
करत द्वार निज फेरि झकाझक झारि बहारि,
पोँछि चौखटन, लीपि चौतरन, चौक सुधारि।
पुनि अशोक की लाय लहलही कोमल डार
चुनि चुनि पल्लव गूँथत नूतन बंदनवार।
पूछत पथिकन सोँ निकसत जो वा मग जाय
"कतहुँ सवारी रही कुँवर की या दिशि आय?"
यशोधरा हू चाह भरे चख तिनपै डारि
पथिकन को उत्तर सुनती झुकि पंथ निहारि।


मुंडी एक अचानक आवत पर्यो लखाय
धारे वसन कषाय कंध पर सोँ ले जाय।
कबहुँ पसारत पात्र जाय दीनन के द्वार;
पावत लेत, न पावत लावत बढ़त न बार।
ताके पाछे रहे भिक्षु द्वै औरहु आय
लिए कमंडल कर में, धारे वसन कषाय।