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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२५४

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सत्य प्रेम संयम के बल जो अमित शक्तिधर,
परम प्रतापी भूपालन सोँ कतहुँ श्रेष्ठतर,
सकल जगत् को करनहार उद्धार तथागत
नायो जो निज सीस याहि विधि जैसे मैं नत।
समुझि पितृऋण औ लौकिक प्रेमहिं अपनाई
पाई जो निधि तासु प्रथम फल सम्मुख लाई,
चाह्यो अर्पित करन पिता को अति प्रसन्न मन,
जैसे ह्याँ, हे तात! आज मैं चाहत अर्पन।"

"कौन सी निधि?" नृपति पूछ्या चाह सोँ चकराय
पकरि कर नरपाल को भगवान् तब हरखाय;
चले बीथिन बीच भाखत शान्तिधर्मनिदान,
'आर्य सत्य' महान् जामें संपुटित सब ज्ञान।

कह्यो पुनि 'अष्टांग मार्ग' बुझाय जाके बीच
जो चहै सो चलै राजा रंक, द्विज औ नीच।
पुनि बताए मोक्ष के सोपान आठ उदार
जिन्हैं चाहैँ जो गहैं नर नारि या संसार-

मूर्ख, पंडित, बड़े, छोटे, युवा जरठ समान-
छूटि या भवचक्र सों योँ लहैं पद निर्वान।
चलत पहुँचे जाय ते प्रासाद के अब द्वार।
नृपति नाहिँ अघात निरखत प्रभुहि बारंबार,