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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२५९

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रैन मानो घाटिन मे, बासर पहारन पै,
ठमकि सुनत बानी प्रभु की सुधाभरी।
बीच में सलोनी साँझ अप्सरा सो मानो कोउ,
मति गति खोय थकी मोहित सी जो खरी।
छिटके घुवा से धन कुंतलकलाप मानो,
तारावलि मोतिन की लरी बिखरी परी।
अर्द्धचंद्र सोइ मानो बेंदी बिलसति भाल,
तम को पसार मानो नील सारी पातरी।

सुरभित मंद मंद बहत समीर, सोइ
मानो थामि थामि साँस छाँड़ति बिसारि गात।
सुंदर समय पाय बसि याही ठौर शुचि
करि रहे प्रभु उपदेश अति अवदात।
जाने जाने सुने जाने सुने अनजाने सब-
ऊँच, नीच, आर्य, म्लेच्छ, कोल, भील औ किरात-
परति सुनाय तिन्हैं बोलिन में निज निज
भाखत जो जात भगवान् ज्ञानभरी बात।

नर, देव, पितरन की कहा जो रहे भीर लगाय
सब, कीट, खग, मृग आदि हू को परत कछुक जनाय
वा प्रेम को आभास जो प्रभु हृदय माहिँ अपार।
'बँधि रही आशा तिन्हैं प्रभु के वचन के अनुसार।