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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/२७२

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  • रहि जात है कछु नाहिं प्राणी मरत है जा काल;

चैतन्य अथवा आतमा नसि जात है ज्यों ज्वाल ।
रहि जात केवल कर्म ही हैं शेष विविध प्रकार;
बहु खंड तिनसोँ लहत उद्भव जन्म जोरनहार ।

जग माहिँ तिनको योग प्रगटत जीव एक नवीन ;
सो आप अपने हेतु घर रचि होत वामें लीन ।
ज्यों पाटवारो कीट आपहि सूत कातत जाय
पुनि आप वामें बसत है जो लेत कोश बनाय ।

सो गहत भौतिक सत्व औ गुण आपही रचि जाल―
ज्यों फूटि विषधर-अंड केंचुर दंष्ट्र गहत कराल ;
ज्यों पक्षधर शरबीज घूमत उड़त नाना ठौर,
लहि वारितट कहुँ बढ़त,फेंकत पात, धारत मौर ।


  • इसके पहले के पद्य में बौद्धों के जिस दार्शनिक मत का आभास है उसे स्पष्ट करने के लिए यह पद्य अपनी ओर से जोड़ा गया है । बौद्ध लोग आत्मा को नश्वर मानते हैं; उसे अमर नहीं मानते । इससे कर्मवाद को विलक्षण रीति से उन्होंने अपने मत के अनुकूल किया है । प्राणी की मृत्यु होने पर उसके सब खंड-आत्मा आदि सब―नष्ट हो जाते हैं;केवल कर्म शेष रह जाते हैं जिनसे फिर नए नए खंडों की योजना होती है और एक नया प्राणी उत्पन्न होता है । पिछले प्राणी के साथ इस नए प्राणी का कर्मसूत्रसंबंध रहता है,इससे दोनों को एक ही प्राणी कह सकते हैं ।