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पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/४७

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( ३८ ) -- 9 कारक के कुछ प्रयोग भी ब्रजभाषा के निज के हैं जो न खड़ी बोली में होते हैं, न अवधी में। जैसे, अधिकरण चिह्न 'पर का प्रयोग करण और अपादान के अर्थ में। उ०- -(क) शेष शारदा पार न पावै मोपै किमि कहि जैहै ? (ख)तू अलि ! का कहत बनाय ?—सूर । साहित्य की जो भाषा होगी वह ऐसे सामान्य शब्दों को ही व्यवहार में लाएगी जिनका प्रचार दूर दूर तक होगा। किसी भूखंड के एक कोने का प्रयोग, चाहे वह कोना वहीं का क्यों न हो जहाँ की भाषा टकसाली मानी जाती है, शिष्ट प्रयोग में नहीं आएगा। शीघ्र के अर्थ में "सिदासी” मथुरा वृन्दाबन में बराबर बोला जाता है पर साहित्य में नहीं लिया गया है। इसी प्रकार जहाँ कर्म लुप्त होता है या नियत लिग का नहीं होता वहाँ भूत० क्रिया कहा' को स्त्री० लिग बोलने की प्रवृत्ति ब्रज में अधिक है जैसे, 'वाने कह्यो' के स्थान पर 'वाने कही। स्वीकृति सूचक शब्द 'अच्छा!! के स्थान पर भी "अच्छी !" बोलते हैं। पर ऐसे प्रयोग साहित्य से प्रायः अलग रखे गए हैं। अवधी की कुछ विशेषताएँ पहले जो कुछ कहा जा चुका है उससे अवधी के स्वरूप का भी बहुत कुछ परिचय हो गया होगा। यद्यपि अवधी पूरबी हिंदी के अंतर्गत है पर उसके भीतर भी हम दो प्रकार के रूप पाते हैं-एक पच्छिमी, दूसरा पूरबी। पच्छिमी अवधी 64