सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बुद्ध-चरित.djvu/९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२६)

क्योँ सहसा लखि गापा को याँ ढर्यो तासु चित;
कह्यो बुद्ध "हम रहे परस्पर नाहिं अपरिचित।
बहुत जन्म की बात सुनौ जमुना के तट पर,
नंदादेवी को सोहत जहँ धवल शिखर वर,
एक अहेरी को कुमार मन मोद बढ़ाई।
बनकन्यन के संग रह्यो खलत तहँ जाई।
बन्यो पंच सो; ताहि प्रथम चलि छुवन विचारी
देवदार तर दौर हरिनी सरिस कुमारी।
बनजूही सोँ देत काहु को भाल सजाई;
नीलकंठ के पंख काहु को देत लगाई;
औ गुंजा की माल काहु के गर में नावत;
काहू को चुनि देवदार के दल पहिरावत।
दौरी पाछे जो सबके सो आगे आई।
मृगछौना दै एक ताहि सोँ प्रीति लगाई।
सुख सोँ दोऊ रहे बहुत दिन लौं बन माहीं।
बँधे प्रीति में दोउ अभिन्न-मन मरे तहाँहीं।
देखौ! जैसे बीज भूमि तर ढको रहत है,
फोरत अंकुर वर्षा की जब धार लहत है:
याही बिधि सब कर्मबीज पहले के भाई-
राग द्वेष, सुख दुःख, भलाई और बुराई-
प्रगटत हैं पुनि जब कबहूँ ते अवसर पावैं;
औ मीठे वा कडुवे फल निज डारन लावैं