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पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४१८

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४०४ बृहदारण्यकोपनिषद् स० पल्क्य ने ।+आह कहा । या जो । सर्वस्य-सबके । प्रात्मनः प्रात्मा का । परायणम्=परम श्राश्रय है । + चम्पार । यम्-जिसको। त्वम्-तुम । इति-ऐसा । श्रात्य-कहते हो। तम्-उस । पुरुषम्-पुरुप को। अहम्-मैं । वै-अवश्य । वेद- जानता हूं । अयम्-वही । पुरुषः पुरुप । श्रप्सु-जलचिपे हैं। सः वही। एषः तुम्हारे विपे है। शाकल्य-हे शाकल्य ! एक- अवश्य । वदम्पूछो । इति इस पर। शाकल्यः शाकल्य ने। + आह-पूछा कि । तस्य-उस पुल्प का । देवता-देवता यानी कारण । का-कौन है । इति-ऐसा सुन कर । उवाच ह याज- वल्क्य ने स्पष्ट उत्तर दिया कि । वरुणःवरण है। भावार्थ । के रहने की जगह जल है, हृदय ग्रह है, मन प्रकाश है, जो सबके आत्मा का परम आश्रय है, उस पुरुष को हे याज्ञवल्क्य! जो जानता है वह सबका ज्ञाता होता है, यदि आप उस पुरुप को जानते हैं तो बताइये, ऐसा सुन कर याज्ञवल्क्य कहते हैं कि हे शकल्य ! जो सबके आत्मा का परम आश्रय हैं, और जिसको तुम ऐसा कहते हो, उसको मैं अवश्य जानता हूँ, वही पुरुष जल विषे है और वही पुरुष तुम्हारे बिपे है, हे शाकल्य ! और क्या पूछते हो, पूछो ? मैं उत्तर देने का तय्यार हूँ, इस पर शाकल्य पूछते हैं कि उसका देवता कौन है ? याज्ञवल्क्य उत्तर देते हैं उसका देवता वरुण है ॥ १६ ॥ मन्त्रः १७ रेत एव यस्यायतनछ हृदयं लोको मनो ज्योतिर्यो जिस पुरुष