पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१३६

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(११६)
[शृंगार-
भामिनीविलासः।

हे कृषाङ्गि! तेरा अनुरागी मन स्तनौंके मध्य माणिक्यके रूपमें बाहर आय मेरे जान प्रियतमको अवलोकन करनेकी इच्छा करता है ('अपन्हुति' अलंकार है)

जगदंतरममृतमयैरंशुभिरापूरयनितराम्। उदयति
वदनव्याजात् किमु राजा हरिणशावनयनायाः॥१२७॥

मृगशावकनयनीके वदन [मुख] के मिष से जगतको अमृत मय किरणोंसे अलीशांति पूरित करनेके लिए क्या (यह) चंद्रमा उदय हुआ है? ('उत्प्रेक्षा' अलंकार है)

तिमिरशारदचंदिरचंद्रिकाः कमलविद्रुमचंपककोरकाः। यदि मिलंति कदापि तदाननं खलु तदा कलया तुलयामहे॥१२८॥

(निविड़) अंधकार, शरच्चन्द्र, चंद्रिका, कमल, विद्रुम और चंपककली यदि किसी काल (एक पदार्थ) में मिलैं नो में उस नायिका के आनन की एक कला की तुलना करूं (तिमिर-केशकलाप, शरच्चन्द्र-मुख, चंद्रिका लावण्यता, कमल-नयन, विद्रुम-ओष्ठ, चंपककलिका-दंत जानना)

प्रिये विषाद जहिहीति वाचं प्रिये सरागं वदति प्रियायाः।
वारामुदारा विजगाल धारा विलोचनाभ्यां मनसश्च मानः॥१२९॥


१ यह 'द्रुतविलंबित, छंद है