भी उत्कर्ष चाहता है। 'जयंति' शब्द से कवि ने, द्वितीय विलास के अलंकार किया)
भामिनीविलास के प्रास्ताविक नामक द्वितीय विलास का प्राकृत भाषानुवाद समाप्त हुआ॥
अथ भामिनी विलासे
तृतीयः करुणा विलासः।
दैवे पराग्वदनशालिनि हंत जाते याते च संप्रति दिवं प्रति बंधुरत्ने।
कस्मै मनः कथयितासिनिजामवस्यां कः शीतलैः शमयिता वचनैस्तवाधिम्[१]॥१॥
इस समय दैवके पराङ्मुख [विमुख] होने और बंधुवर्गों कै स्वर्गलोक जाने से हाय हे मन! (अब तू) अपनी अवस्था (का वर्णन) किससे करैगा और शीतल वचनौसे तेरे दुःखको कौन शांत करैगा?
प्रत्युद्गता सविनयं सहसा पुरेव स्मेरैः स्मरस्य सचिवैः सरसावलोकैः।
मामद्य मंजुरचनैर्वचनैश्च बाले हा लेशतोऽपि न कथं शिशिरीकरोषि॥२॥
हे बाले! मदनकी सहायता करनेवाली मंद मुसुकानि और रसभरी चितवनिसे विनय पूर्वक (जो, तू मुझे) पहिले प्राप्त हुई; (सो, वही) आज, मधुर वचनौंकी रचनासे हाय मुझे किंचित् भी क्यों नहीं शीतल करती?
- ↑ 'वसंततिलका' छंद।