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पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/१६६

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(१४६)
[करुणा-
भामिनीविलासः।


परंतु तेरी स्मित उससे भी शुभ्र होने के कारण कविजन शुभ्रताके प्रसंग में उसीका वर्णन करतेथे, पौर्णिमाका नहीं परंतु अब तू नहीं रही, इससे पौर्णिमा अत्यानंदित हो महान वैभवको प्राप्त हुई है यह भाव)

मंदस्मितेन सुधया परिषिच्य या मां नेत्रोत्पलैर्विकसितैरनिशं समीजे।
सा नित्यमंगलमयी गृहदेवता मे कामेश्वरी हृदयतो दयिता न याति॥१२॥

सुधारूपी मंदमुसुकानि से सींच जिसने नेत्ररूपी विकसित कमलों से मेरा निरंतर पूजन किया वह नित्यमंगल कारिणी गृहदेवता, सर्वकामपूर्णकर्त्री, कामिनी मेरे हृदयसे नहीं जाती।

भूमौ स्थिता रमणनाथ मनोहरेति संबोधनर्यमधिरोपितवत्यसि द्याम्।
स्वर्गं गता कथमिव क्षिपसि त्वमेणशावाक्षि तं धरणिधूलिषु मामिदानीम्॥१३॥

हे मृगशावकलोचने! भूतल में स्थित रहते 'हे रमण' , 'हे नाथ', 'हे मनोहर', इस प्रकार के संबोधनों से जिसे (तू ने) सुरलोक पै आरोहण कराया अर्थात् अमरावती के तुल्य सुख दिया, उसी मुझ को अब (तू) स्वर्ग में जाय धरणीतल धूलि में किस प्रकार डालती है।

लावण्यमुज्ज्वलमपास्ततुलं च शीलं लोको-