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पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/४४

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(२४)
[प्रास्ताविक-
भामिनीविलासः।

पुञ्जे मञ्जुलगुञ्जितानि रचयंस्तानातनोरुत्सवान्॥
तस्मिन्नद्य रसालशाखिनि दृशां दैवात् कृशामंचति।
त्वंचेन्मुंचसि चंचरीक विनयं नीचस्त्वदन्योऽस्तिक:४७

हे चंचरीक! वसंत के आतेही जिस के चारों ओर कुसु मित मंजरी के पुंज में मंजु गुंजार करतेहुए तूने बड़ा सुख पाया अब दैववशात् उसी आम्रवृक्ष को कृशता! पुष्प विहीनत्व) प्राप्त होनेसे यदि तू उससे स्नेह न रक्खेनगा तो तुझसे विशेष नीच और कौन है! (जब तक स्वामी संपत्तिमान है तब तक उसके यहां अनेक भोग कर अभाग्यवश उसे निर्धनत्व प्राप्त होने से केवल नीच ही उसका त्याग करते है, भले मनुष्य यदि सुख में साथी हुए तो दुख में भी अवश्य होते हैं)

मुक्ता मृणालपटली भवता निपीता।
न्यम्बूनि यत्र नलिनानि निषेवितानि॥
रे राजहंस वद तस्य सरोवरस्य।
कृत्येन केन भवितासि कृतोपकारः॥४८॥

अरे राजहंस! जिस सरोवर में निवास करके तूने मृणाल तंतुओं का भोजन किया, जल पिया और चंद्रावकाशी कमलों का भी सेवन किया उस सरोवर का किस कृत्य से तू प्रत्युपकार करैगा? संसार में बहुत से मनुष्य दूसरे की द्रव्य से अनेक सुख भोग करते हैं परंतु अपनी एक फूटी कौडी तक व्यय नहीं करते, किं बहुना प्रत्युपकार क्या है जानते ही नहीं।