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पृष्ठ:भामिनी विलास.djvu/८७

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विलासः२]
(६७)
भाषाटीकासहितः।

प्रातःकाल गुरुजनों को प्रणाम करने में 'पुत्रवती हो' इस प्रकार के सुंदर वचनों को सुन, परम प्रमुदित हो बडे आदर से समीपभागस्थित अपने पति को ओर स्त्री ने दृष्टी की। (इस श्लोक में यह भाव ध्वनित होता है कि उस नायका का पति या तो मूर्ख है इससे विलासादिक सुखों को जानता ही नहीं, अथवा जार है इस कारण स्वपत्नी से प्रीति नही करता; अथवा बालक है इससे निज स्त्री को प्रसन्न करने में समर्थ नहीं। 'पुत्रिणी भव' इस आशीर्वाक्य को श्रवणकर नायकाने पति को ओर देखकर यह सूचित किया कि इन शब्दों की सार्थकता करौ अथवा यदि वैसा करने को तुम समर्थ नहीं तो आज्ञाही दो कि मे स्वयं उसका उपाय करूं। इस से यह भाव भी दर्शित होता है कि जो यह आशीर्वाद सत्य होगा तो मेरा पतिव्रत भंग समुझना और जो पतिव्रत भंग न होगा तो गुरुजनों के वाक्य मृषा जानना)

गुरुजनभयमद्विलोकनान्तःसमुदयदाकुलभावमुद्वहन्त्यः।
दरदलदरविन्दसुंदरे हा हरिणदृशो नयने न विस्मरामि॥७॥

गुरूजनों का भय है जिसमें ऐसे अवलोकन से उत्पन्न हुए आकुल भाव को प्राप्त होनेवाली मृगनयनी (भामिनी) के किंचित विकसित कमल के समान सुंदर नयनौं का विस्मरण